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________________ 76 / Jijnāsā गीता में जीवमात्र की समता का सिद्धान्त गीता ही जीवनमात्र में समता की उद्घोषणा करती है “विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिनः।।" । - गीता 5.18 अर्थात् विद्या तथा विनय से सम्पन्न ब्राह्मण में, गौ में, हाथी में, कुत्ते और चाण्डाल में भी पण्डितजन समभाव से देखने वाले हैं। सब एक ही निर्विकार ब्रह्म के अंश है। अत: ज्ञानी सभी में समान दृष्टि रखते हैं। अद्वैत की दृष्टि से सभी प्राणियों में भगवद्रुप की सत्ता एवं एकता सिद्ध हो जाती है तथा भेदभाव की सम्भावना भी नहीं रहती है "सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।। यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च न मे प्रणश्यति।" - गीता 6.29-30 सर्वप्राणियों में आत्मा को तथा आत्मा के सभी प्राणियों को देखने वाले योग युक्त आत्मा सर्वत्र समदर्शन करते हैं। मुझे सर्वत्र तथा मुझमें सब कुछ देखने वाले समदर्शी योगी के लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ तथा वह ज्ञानी भी मुझसे अदृश्य या परोक्ष नहीं होता क्योंकि उसका एवं मेरा स्वरूप एक ही है। इस प्रकार अनेक युक्ति से श्रीकृष्ण समता की प्रतिष्ठा करते हैं। अत: सिद्ध होता है कि गीता मनुष्य के वैयक्तिक एवं सामाजिक पक्ष का सुन्दर समन्वय करती है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता प्राप्ति तथा सामाजिक सुरक्षा का तादात्म्य स्थापित करती है। आत्मिकलाभ एवं लोकसंग्रह, भोगवाद एवं कर्मवाद, अकर्मवाद एवं कर्मवाद का परस्पर अन्वय बिठाते हुए निष्काम भाव से कर्म करने पर आत्मिक एवं शारीरिक अभ्युदय की संगति प्रदान करती है। इसलिए गीता भारतीय जागरण में प्रभावी भूमिका निभाती है। विवेकानन्द, तिलक, महात्मा गाँधी, श्री अरविन्द, विनोबा भावे इससे नवीन शक्ति प्राप्त करते हैं। जैन परम्परा के सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चरित्र तथा बौद्धों के प्रज्ञा, शील एवं समाधि भी इसके नैतिक चिन्तन का समर्थन करते हुए दिखते हैं। अत: गीता विश्व का नीतिशास्त्र सिद्ध होता है। अनुगीता का नैतिक एवं दार्शनिक चिन्तन युद्ध के बाद श्रीकृष्णार्जुन संवाद में प्राप्त अनुगीता विशेषत: मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करती है। अत: साधक को अध्यात्मोन्मुख करने में वेदान्त की युक्तियां ज्ञानमार्ग को सर्वोच्चता प्रदान करने के लिए दी गई है। इसी प्रकार भागवत महापुराण की उद्भव गीता में भी श्रीकृष्ण ज्ञानमार्ग एवं अध्यात्म को प्रधानता प्रदान करके पराभक्ति रूपी ज्ञान से नि:श्रेयस की सिद्धि का निरूपण करते हैं। इनमें विवेचित नैतिक चिन्तन एवं दार्शनिक तत्त्वों का साररूप परिचय इस प्रकार है। यह गीता महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में अध्याय 16-51 तक (36 अध्यायों में) उपलब्ध है। श्लोक संख्या 1041 है। इस गीता में तीन उपगीताएँ भी हैं- काश्यप, अम्बरीष' एवं ब्राह्मणगीता। 10 महाभारत के युद्ध के पश्चात् श्रीकृष्ण तथा अर्जुन सभा भवन में रहने लगे तब एक बार अर्जुन पूछते हैं कि हे भगवान् युद्ध के समय आपके ईश्वरीय रूप का दर्शन हुआ। आपने जो गीता ज्ञान मुझे दिया अब चित्त विचलित होने के कारण नष्ट (विस्मृत) हो गया है, अनुगीता 1.61 मुझे पुन: वही ज्ञान सुना दें क्योंकि इधर आप जल्दी ही द्वारका जाने वाले हैं। तब श्रीकृष्ण उलाहना देते हैं कि उस दिव्य ज्ञान को विस्मृत कर तूने अच्छा नहीं किया, अब वह ज्ञान मैं भी प्रयास करने पर भी पूर्णत: नहीं बता सकूँगा, अनुगीता 1.9.12 ।
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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