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________________ श्री कृष्ण का नैतिक चिन्तन एवं दर्शन / 75 स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।" __ - गीता 2.62-63 कर्त्तव्य पालन में बाधक काम या इच्छा ही है। अत: उसकी निवृत्ति आत्म संयम द्वारा हो सकती है। अब यह जिज्ञासा उठती है कि कर्म का पालन विषयों से सम्पर्क बढ़ाता है। अत: यह प्रवृत्ति की दृढ़ता प्रस्तुत करता है, जबकि आत्मसंयम विषयों से सम्पर्क त्यागने की आवश्यकता प्रतिपादित करता है तो निश्चय ही यह निवृत्ति साधक है। अत: इस नैतिक उलझन का समाधान एकमात्र निष्काम कर्मयोग है। गीता कर्मवाद एवं त्यागवाद का समन्वय इस प्रमुख सिद्धान्त के माध्यम से करती है। अत: कर्त्तव्य या कर्म के पालन में फलेच्छा का त्याग करने पर आसक्ति का नाश हो जायेगा तथा कर्म के करने से अकर्मवाद की अकर्मण्यता भी दूर हो जायेगी अत: ठीक ही कहा है "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सनोस्त्वकर्मणि।" - गीता 2.47 “योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।" ___ - गीता 2.48 अर्थात् कर्तव्यपालन की दृष्टि से किया गया कर्म ही कर्म है। इसी में लोकसंग्रह निहित है। अन्य इच्छाओं से किया गया कर्म सच्चा कर्म नहीं है। समुचित कर्त्तव्यों का आचरण ही वास्तविक कर्म है। इसी प्रकार वास्तविक कर्मसंन्यास यज्ञ, दान एवं तप आदि पावन कर्मों को त्ङ्मागना नहीं है। ये त्याज्य कर्म नहीं है। इस प्रकार गीता अपने अद्वितीय विवेचन से संन्यासवाद एवं कर्मवाद का समन्वय कर्मवाद में फलेच्छा त्याग के रूप में संन्यासवाद लाती है तथा संन्यासवाद में समुचित कर्तव्यपालन का कर्मवाद प्रविष्ट कराके निष्काम कर्ममार्ग को सयुक्तिक सुस्थापित करती है। जो सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक तथ्य के रूप में नीतिशास्त्र में स्वीकार्य है। ___ उचित ज्ञान एवं कर्तव्यपालन के पश्चात् उठने वाली चरम लक्ष्य मूलक समस्याओं का समाधान मोक्ष प्राप्ति है। मानवीय बुद्धि प्रयत्न कर बार-बार नियन्त्रित करने पर या तो घोर कर्मवाद को या घोर संन्यास को उन्मुख हो जाती है। परमलक्ष्य नि:श्रेयस की प्राप्ति से भटक जाते हैं, अत: ईश्वर पर श्रद्धा होने से उसके शरणागति पर जाने से सरल निष्काम मार्ग को भी प्रस्तुत करती है क्योंकि वास्तविक नैष्कर्म्य तभी है जब ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण हो, नहीं तो विषयों की कामना पुन: पुन: प्रकट होकर भ्रमित कराने का प्रयास नहीं छोड़ेगी। यद्यपि सांसारिक इच्छायें मिटती हैं, आत्मसंयम से। जब आत्मशुद्धि होती है उससे ज्ञान में पूर्णता एवं परमानन्द की प्राप्ति तथा नि:श्रेयस भी सहज अधिगत हो जाता है। इस समस्या का समाधान भक्ति से ही हो सकता है “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामैवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।" - गीता 18.65 एवं 9.34 अपना मन मेरे ऊपर केन्द्रित करो, मेरी भक्ति करो, मेरा यज्ञ करो, मुझे नमस्कार करो, इस प्रकार तुम मुझे ही प्राप्त करोगे। तुम मेरे प्रिय हो इस कारण मैं तुमको बतला रहा हूँ। इस प्रकार गीता में इच्छा को भगवद्भक्ति की ओर मोड़ा गया है क्योंकि इच्छाओं का अन्त ही नहीं है वह प्रभु समर्पण से ही विलीन हो सकती है।
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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