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________________ 316 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना दरिसनु दुरित हरै चिर संचितु, सुरनरफनि मुहनी । रूपचन्द कह कहौं महिमा, त्रिभुवन मुकुट मनी ।। " ६१ कविवर बनारसीदास ने नाटक समयसार में पंचपमेष्ठियों की जो स्तुतियाँ की हैं। उनमें तीर्थंकर के शरीर की स्तुति यहां उल्लेखनीय है।" जगतराम ने भी इसी प्रकार आराध्य की छवि देखकर शाश्वत सुख की प्राप्ति की आशा की है। " नवलराम के नेत्रों में उसकी छाया सुखद प्रतीत होती है - 'म्हारा तो नैना में रही छाय, हो जी हो जिनेन्द्र थांकी ११६४. मूरति । ” “ दौलतराम को भी ऐसा ही सुखद अनुभव होता है और साथ ही उनके मोह महातम का नाश हुआ है - 'निरखत सुख पायौ जिन मुख चन्द मोह महातम नाश भयौ हे, उर अम्बुज प्रफुलायौ। ताप नस्यौ बढि उदधि अनन्द।" बुधजन भी 'छवि जिनराई राजै छै' कहकर भगवान की स्तुति करते हैं । ' ६६ ६७ रूपासक्तिमय भक्ति के माध्यम से भक्त भगवद् दर्शन के लिए लालायित रहता है। वह जिनेन्द्र का दर्शन करने में अपना जन्म सफल मानता है और ध्यान धारण करने से संसिद्धि प्राप्त करता है। उपाध्याय जयसागर को आदिनाथ के दर्शनों से अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है।" पद्म तिलक ने भी आदिनाथ की स्तुति की है जिससे समस्त मनोवांछित अभिलाषायें पूर्ण हो जाती हैं । " मुनि जयलाल का मन प्रभु के दर्शन से हर्षित हो जाता है । वह राज ऋद्धि की आकांक्षा नहीं करता, बस, उसे तो आराध्य के दर्शनों की ही प्यास लगी है।" यह दर्शन सभी प्रकार के संकट और दुरित का निवारक है - 'उपसमै संकट विकट कष्टक दुरित पाप निवरणा । ७१ मनोवांछित चिन्तामणि है । " जिसे वह अच्छा नहीं लगता वह मिथ्यादृष्टि है। जिन प्रतिमा जिनेन्द्र के समान है। उसके दर्शन करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं - ७२
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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