SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ 315 एकाकारता की अनुभूति करने लगता है। वह अब रागात्मक सम्बन्ध भी स्थापित कर संसार सागर से पार करने की प्रार्थना करता है तुम माता तुम तात तुम ही परम धणीजी । तुम जग सांचा देव तुम सम और नहीं जी ।।१।। तुम प्रभु दीनदयालु मुन्द दुष दूरि करो जी। लीजै मोहि उबारि मैं तुम सरण गही जी ।।२।। संसार अनंतन ही तम ध्यान धरो जी। तुम दरसन बिन देव दुरगति मांहि सत्यौजी ।।३।। भक्त कवि आराध्य के रूप पर आसक्त होकर उसके दर्शन की आकांक्षा लिये रहता है। सीमन्धर स्वामी के स्तवन में भेरुनन्द उपाध्याय ने प्रभु के रूप का बड़ा सुन्दर चित्रांकन किया है जिसमें उपमान-उपमेय का स्वाभाविक संयोजन हुआ है। भट्टारक ज्ञानभूषण ने तीर्थंकर ऋषभ की बाल्यावस्था का चित्रण करते समय उनके मुख को पूर्णमासी के समान बताया और हाथों को कल्पवृक्ष की उपमा दी। उनके काव्य में बालक का चित्र अत्यन्त स्वाभाविक ढंक से उभरा हुआ है जिसमें अनेक उपमानों का प्रयोग है। __पांडे रूपचन्द का काव्य सौष्ठव देखिये जिसमें बिम्बप्रतिबिम्ब भाव का समुचित प्रयोग हुआ है - प्रभु तेरी परम विचित्र मनोहर, मूरति रूप बनी। अंग-अंग की अनुपम सोभ, बरननि सकति फनी ।। सकल विकार रहित बिनु अम्बर, सुन्दर सुभ करनी । निराभरन भासुर छवि सोहत, कोटि तरुन तरनी ।। वसु रस रहित सांत रस राजत, खलि इहि साधुपनी । जाति विरोधि जन्तु जिहि देखत, तजत प्रकृति अपनी ।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy