SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना मंत्रों और सिद्धियों की परिणति वैदिक अथवा बौद्ध संस्कृतियों में प्राप्त उस वीभत्स रूप जैसी नहीं हुई । यही कारण है कि जैन संस्कृति के मूल स्वरूप अक्षुण्ण तो नहीं रहा पर गर्हित स्थिति में भी नहीं पहुंचा । जैन रहस्य भावना के उक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जैन रहस्यवादी साधना का विकास उत्तरोत्तर होता गया है, पर यह विकास अपनी मूल साधना के स्वरूप से उतना दूर नहीं हुआ जितना बौद्ध साधना का स्वरूप अपने मूल स्वरूप से उत्तरकाल में दूर हो गया । यही कारण है कि जैन रहस्यवाद ने जैनेतर साधनाओं को पर्याप्त रूप से प्रबल स्वरूप में प्रभावित किया । | प्रस्तुत प्रबन्ध को आठ परिवर्तो में विभक्त किया गया है । प्रथम परिवर्त में आदि और मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का अवलोकन है । सामान्यतः भारतीय इतिहास का मध्यकाल सप्तम शती से माना जाता है परन्तु जहां तक हिन्दी साहित्य के मध्य काल की बात है उसका काल कब से कब तक माना जाये, यह एक विचारणीय प्रश्न है । हमने इस काल की सीमा का निर्धारण वि.सं. १४०० से वि. सं. १९०० तक स्थापित किया है । वि. सं. १४०० के बाद कवियों को प्रेरित करने वाले सांस्कृतिक आधार में वैभिन्य दिखाई पडता है । फलस्वरूप जनता की चित्तवृत्ति और रुचि में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप जनता की रुचि जीवन से उदासीन और भगवत् भक्ति में लीन होकर आत्म कल्याण करने की ओर उन्मुख थी इसलिए कविगण इस विवेच्य काल में भक्ति और अध्यात्म सम्बन्धी रचनायें करते दिखाई देते हैं । जैन कवियों की इस प्रकार की रचनायें लगभग वि. सं. १९०० तक मिलती है अतः इस सम्पूर्ण काल को मध्यकाल नाम देना ही अनुकूल प्रतीत होता है । T 1
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy