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________________ 238 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना इन्हीं से प्रभावित है। अचलकीर्ति को माया, मोहादि के कारण संसारसागर कैसे पार किया जाय, यह चिन्ता हो गई। मन रूपी हाथी आठ मदों से उन्मत्त हो गया। तीनों अवस्थायें व्यर्थ गंवा दी, अब तो प्रभु की ही शरण है। काहा करुं कैसे तरुं भवसागर भारी ।। टेक ।। मचयामोह मगन भयो महा विकल विकारी || कहा० ॥ मन हस्ती मद आठ, सुमन-सा मंजारी । चित चीता सिंघ सांप ज्युं अतिबल अहंकारी ।। १७ मोह साधक का प्रबलतम शत्रु है। साधना के बाधक तत्त्वों में यदि उसे नष्ट कर दिया जाय तो चिरन्तन सुख भी उपलब्ध करने में अत्यन्त सहजता हो जाती है। इसलिए साधकों ने उसके लिए "महाविष" की संज्ञा दी है। इस तथ्य को सभी साधनाओं में स्वीकार किया गया है। उसकी हीनाधिकता और विश्लेषण की प्रक्रिया में अन्तर अवश्य है। ७. बाह्याडम्बर जैन साधकों ने धार्मिक बाह्याडम्बर को रहस्यसाधना में बाधक माना है। बाह्य क्रियाओं से आत्महित नहीं होता इसलिए उसकी गणना बन्ध पद्धति में की गई है। बाह्य क्रिया मोह-महाराजा का निवास है, अज्ञान भाव रूप राक्षस का नगर है। कर्म और शरीर आदि पुद्गलों की मूर्ति है। साक्षात् माया से लिपटी मिश्री भरी छुरी है। उसी के जाल में यह चिदानन्द आत्मा फंसता जा रहा है। उससे ज्ञानसूर्य का प्रकाश छिप जाता है, अतः बाह्य क्रिया से जीव, धर्म का कर्ता होता है, निश्चय स्वरूप से देखो तो क्रिया सदैव दुःखदायी होती है। इस सन्दर्भ में पीताम्बर का यह कथन मननीय है - "भेषधार कहै भैया भेष ही में भगवान, भेष में न भगवान, भगवान न भाव में । १९ ११८ -
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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