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________________ उपस्थापना 5 रहस्यवाद की परिभाषा समय, परिस्थिति और चिन्तन के अनुसार परिवर्तित होती रही है । प्रायः प्रत्येक दार्शनिक ने स्वयं से सम्बन्धित दर्शन के अनुसार पृथक् रूप से चिंतन और आराधन किया है और उसी साधना के बल पर अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न किया है । इस दृष्टि से रहस्यवाद की परिभाषाएं भी उनके अपने ढंग से अभिव्यंजित हुई हैं । पाश्चात्य विद्वानों ने भी रहस्यवाद की परिभाषा पर विचार किया है । वर्टून्डरसेल का कहना है कि रहस्यवाद ईश्वर को समझने का प्रमुख साधन है । इसे हम स्वसंवेद्य ज्ञान कह सकते है जो तर्क और विश्लेषण से भिन्न होता है'। फ्लीडर रहस्यवाद को आत्मा और परमात्मा के एकत्व की प्रतीति मानते हैं । प्रिंगिल पेटीशन के अनुसार रहस्यवाद की प्रतीति चरम सत्य के ग्रहण करने के प्रयत्न में होती है । इससे आनन्द की उपलब्धि होती है । बुद्धि द्वारा चरम सत्य को ग्रहण करना उसका दार्शनिक पक्ष है और ईश्वर के साथ मिलन का आनन्द-उपभोग करना उसका धार्मिक पक्ष है । ईश्वर एक स्थूल पदार्थ न रहकर एक अनुभव हो जाता हैं । यहां रहस्यवाद अनुभूति के ज्ञान की उच्चतम अवस्था मानी गयी है । आधुनिक भारतीय विद्वानों ने भी रस्यवाद की परिभाषा पर मंथन किया है । रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में 'ज्ञान के क्षेत्र में जिसे अद्वैतवाद कहते हैं भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद कहलाता है । डॉ. रामकुमार वर्मा ने रहस्यवाद की परिभाषा की है - "रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक 1. Mysticism and Logic, Page 6 -17 2. Mysticism in Religion, P25 ३. भक्तिकाव्य में रहस्यवाद - डॉ. रामनारायण पाण्डेय, पृ. ६
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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