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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना आदिकाल से ही रहस्यवाद अगम्य, अगोचर गूढ़ और दुर्बोध्य माना जाता रहा है । वेद, उपनिषद्, जैन और बौद्ध साहित्य में इसी रहस्यात्मक अनूभूतियों का विवेचन उपलब्ध होता हैं यह बात अलग है कि आज का रहस्यवाद शब्द उस समय तक प्रचलित न रहा हो । 'रहस्य' सर्वसाधारण विषय है । स्वकीय अनुभूति उसमें संगठित है । अनूभूतियों की विविधता मत वैभिन्य को जन्म देती है । प्रत्येक अनुभूति वाद-विवाद का विषय बना है । शायद इसीलिए एक ही सत्य को पृथक् पृथक् रूप में उसी प्रकार अभिव्यंजित किया गया जिस प्रकार दस अंकों के द्वारा हाथी के अंगोपांगों की विवेचना कवियों ने इस तथ्य को सरल और सरस भाषा में प्रस्तुत किया है । उन्होंने परमात्मा के प्रति प्रेम और उसकी अनुभूति को “गूंगे का सा गुड़" बताया है - 'अकथ कहानी प्रेम की कछू कही न जाय । गूगे केरि सरकरा, बैठा मुसकाई ।' जैन रहस्यवाद परिभाषा और विकास रहस्यवाद शब्द अंग्रेजी “Mysticism" का अनुवाद है, जिसे प्रथमतः सन् १९२० में श्री मुकुटधर पांडेय ने छायावाद विषयक लेख में प्रयुक्त किया था । प्राचीन काल में इस सन्दर्भ में आत्मवाद अथवा अध्यात्मवाद शब्द का प्रयोग होता रहा है । यहां साधक आत्मा परमात्मा, स्वर्ग, नरक, राग-द्वेष आदि के विषय में चिन्तन करता था। धीरे-धीरे आचार और विचार क़ा समन्वय हुआ और दार्शनिक चिन्तन आगे बढ़ने लगा । कालान्तर में दिव्य शक्ति की प्राप्ति के लिए, परमात्मा के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुकरण और अनुसरण होने लगा। उस परम' व्यक्तित्त्व के प्रति भाव उमड़ने लगे और उसका साक्षात्कार रहस्यवाद भी इसी पृष्ठभूमि में दृष्टव्य है ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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