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________________ 114 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना आनन्द और विषाद, राग और द्वेष तथा धर्म और अधर्म आदि भावों की अभिव्यक्ति बड़ी सरस हुई है। कवि भगवतीदास का लघु सीता सतु उल्लेखनीय है जहां उन्होंने मानसिक घात-प्रतिघातों का आकर्षक वर्णन किया है - तब बोलइ मन्दोदरी रानी, सखि अषाढ़ घनघट घहरानी। पीय गये ते फिर घर आवा, पामर मर नित मंदिर छावा।। लवहि पपीहे दादुर मोरा, हियरा उमग धरत नहीं धीरा। बादर उमहि रहे चौमासा, तिथ पिय बिनु लिहिं उरु न उसासा। नन्हीं बून्द झरत झर लावा। पावस नभ आगमु दरसावा।। दामिनि दमकत निशि अंधियारी। विरहिनि काम वान उरभारी। भुगवहि भोगु सुनहि सिख मोरी। जानति काहे भई मति वौरी।। मदन रसायनु हइ जग सारू। संजमु नेमु कथन विवहारू। तब लग हंस शरीर, महि, तक लग कीजई भोगु। राज तजहि भिक्षा अमहिं, इउ भूला सबु लोगु।। इसी प्रकार कृष्ण चरित्र में कवि ठकुरसी ने कंजूस धनी का जो आखों देखा हाल चित्रित किया है वह दृष्टव्य है - कृपणु एक परसिद्ध नयरि निवसंतु निलक्खणु । कही करम संयोग तासु घटि, नाटि विचक्खणु ।। देखि दुहू की जोड़, सथलु जगि रहिउ तमासै। याहि पुरिष कै याहि, दई किम दे इम भासै। वह रह्यो रीति चाहे भली, दाण पुज गुणसील गति। यह देन खाण खरचण किवै, दुवै करहि दिणि कलह अति।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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