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________________ ३८ ] AAAAAAA प्रभंजन-चरित । जलके विना कमलिनीकी नाई बहुत विकल हुई और स्वभावहीसे दरिद्रा वह पतिके वियोग होनेपर दूसरोंसे मांग २ कर अपनी पुत्रियोंका भरणपोषण करनेको उद्यत हुई। एक दिन श्रीने अपनी फूफी-पिताकी बड़ी बहिनको गाली दी, जिससे कि उसने श्रीको बहुत भर्त्सना कर घरसे निकाल दिया । वह नगरसे बाहर गई और वहाँ उद्यानमें उसने बैठे हुए एक दमधर नामक यतिको देखा । वह उनके पास गई और उनसे अपनी दरिद्रताके दूर करनेका साधनउपाय पूछा। यतिने उसको अणुव्रत धारण करनेमें असमर्थ जानकर कहा कि हे सद्बुद्धे ! मैं दरिद्रताके नष्ट होनेका कारण बताता हूँ तुम सावधान हो सुनो। श्रीपंचमीका उपवास करनेसे जीवोंको इष्ट फलकी प्राप्ति होती है, इस लिए तुम अपने मनको निराकुल करके पंचमीके व्रतको करो। उस पंचमीव्रतके फलको सर्वथा तो तीर्थकर (सर्वज्ञ)के सिवाय दूसरा कोई नहीं कह सकता, पर मैं अपनी मतिके अनुसार कुछ हिस्सा कहता हूँ उसे हे वत्से ! तुम स्थिर चित्त कर सुनो। पंचमीके दिन व्रत करनेसे बहुत लक्ष्मी मिलती है, महान् सुख होता है, खूब भोग सम्पत्ति प्राप्त होती है, उच्च कुल मिलता है, रूप-लावण्य मिलता है, महाशील और सन्तोष एवं महान् धैर्यकी प्राप्ति होती है, सुभगता, शुभ नाम, आरोग्य, चिरजीविता, निराकुलता और निष्पापताकी प्राप्ति होती है। पंचमीके व्रतके माहात्म्यसे कभी शोक नहीं होता, ताप और दुःख नहीं होता, संसार भरमें सबसे चढ़ी बढ़ी निर्लोभता प्राप्त होती है, और जो शरणमें आवे उसको अपनानेका भाव पैदा होता है। इस व्रतके माहात्म्यसे
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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