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________________ - ( ४०० ) वैसे ही बहन का भी किया जाता है, परन्तु मन बहन को वहन की दृष्टि से स्त्री को स्त्री की दृष्टि से जुदा कर देता है । मन से किया हुआ काम ही सब ठीक और शास्त्रीय माना जाना चाहिए । अतः मेरी आप से यही प्रार्थना है कि मेरे विना मन से किये हुए कामों को व्यर्थ मान कर बिना किसी हिचकिचाहट के आप मुझे स्वीकार कर लें। राजकन्या हंसावली के चतुराई भरे बचनों को सुनकर श्रीचन्द्रने कहा-राजकुमारी ! वास्तव में तुम सदाचारिणी हो । कांच और मणि का परिवर्तन निश्चय ही हो सकता है, परन्तु विवाहित स्त्री का विनिमय नहीं हो सकता । बुद्धि के भ्रम से दूध में डाला हुआ नमक क्या बदल सकता है ? कभी नहीं । ठीक उसी प्रकार भ्रम से किया हुआ विवाह, विवाह ही रहता है । भ्रमसे विवाहित पति पत्नी, पति पत्नी ही रहते है । वैसी स्त्री को मैं पर स्त्री ही मानता हूँ , और पर स्त्री को अपनाने से घोर पाप लगता है। हंसावली ने कहा देव ! यदि आप मुझे पराई स्त्री ही समझते हैं, तो आग में जल मरने के सिवाय मेरे लिये दूसरा क्या मार्ग हो सकता है ? मैंने तो मन वचन
SR No.022727
Book TitleShreechandra Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinharisagarsuri Jain Gyanbhandar
Publication Year1952
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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