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________________ (१५) यहां स्वतंत्रता को खोकर अपनी उमति कैसे कर सकता हूँ ? । मैं आदरणीय गुरु-जनों का अनादर करके यहां हिना उचित नहीं समझता। अतः मैं विदेश जाना चाहता हूँ। मेरे ये सारे ऐश्वर्य और सुख भो न मालूम माता पिता या स्त्री-किसके भाग्य से प्राप्त हैं, इसका भी पता नहीं है । अतः भाग्य-परीक्षा के लिये भी विदेश जाना मेरे लिये उचित है । मैं कुछ दिनों में पृथ्वी के कौतुकों को देखकर यहां शीघ्र लौट पाऊँगा। श्रीचन्द्रकुमार के इन वचनों को सुनते ही चन्द्रकला छिन्न-मूला लता की तरह धडाम से पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसका सारा शरीर पानी पानी हो गया। उसका अंतःकरण कोई अतर्कित दुःख से फटने लगा। भारी दुःख भार से वह रो पड़ी। विलाप करती हुई वह कहने लगी, देव ! आप यह क्या कह रहे हैं ? आपके चले जाने पर मेरे वियोग-दुःख का क्या पार होगा ? लोग मुझे विष कन्या कहेंगे । पति के सासु के और श्वसुर के दुःख का कारण बतायेंगे। ओ प्राणनाथ ! आप यहीं रहें । आपको किस बात की कमी है ? आपके हाथी, घोड़े, सेना और धन का कोई पार नहीं है। आपके बड़े भाग्य की परीक्षा कई वार हो चुकी है। उसमें कोई सन्देह बाकी नहीं है।
SR No.022727
Book TitleShreechandra Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinharisagarsuri Jain Gyanbhandar
Publication Year1952
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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