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________________ ( १६४ ) लझो लाभ तिन जनम को ता विन जनम गमाय ॥ ऐसा होने पर भी मैंने जो कुछ भला या बुरा किया है, वह धर्म संकट में फंस कर किया है। मेरे सामने दो ही माग थे एक पिता की आज्ञा का पालन, दूसरा अपने कहे वचन की रक्षा । इनमें से मुझे एक चुनना था । मुझे वचन-रक्षा का मार्ग ही अभीष्ट और मनस्तुष्टि वाला लगा। अतः मैंने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया है। चन्द्रकला ने मन ही मन में अपने स्वामी की उदारता, गुरुजनों की भक्ति, वचन-रक्षा आदि की प्रशंसा करते हुए कहा "स्वामिन् ! दान-पुण्यादि कार्यों में आपकी जैसी बुद्धि है वह प्रशंसनीय है। इतने बड़े कुटुम्ब में सबकी बुद्धि एकसी नहीं होती कोई कुछ और कोई कुछ करना चाहते हैं। आप किसी बात की चिन्ता न करें। आपका सब तरह से कल्याण होगा। मैं मानती हूं भविष्य में श्राप एक बड़े राजाधिराज होंगे। . : यह सुन उस दीर्घदर्शी कुमार ने प्रेम-ग्रन्थि के साथ २ शकुन-ग्रन्थि भी बांध ली, और बोला-प्रिये ! मैं मानता हूं तुम्हारी सरस्वती सफल होगी। पर अभी मैं
SR No.022727
Book TitleShreechandra Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinharisagarsuri Jain Gyanbhandar
Publication Year1952
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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