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________________ विजयप्रशस्तिसारः । हे राजन् ! वह परमेश्वर जिसको हम अर्हन शब्द से पुकारते हैं, वह दो प्रकार के स्वरूपों में स्थित है । पहिले तो तीर्थवर सः मवसरण में स्थित होते हुए और ज्ञानादि लक्ष्मी के स्थान भूत बिचरते हुए हैं । इस समयमै भगवान को चोतील अतिशय और वाणी के पैंतीस गुण होते हैं । ( सूरीश्वर ने इनका भी स्वासमझाया ।) ' दूसरे प्रकार में अर्थात् दूसरी अवस्था वाले देवका स्वरूप इस तरह है । वह परमात्मा जिसकी आत्मा संसार से उच्छिन्न है, जो सर्वदा चिन्मय और ज्ञानमय है । इसका कारण यह है कि उस अवस्था में उसके पांच प्रकार के शरीरों में से कोई भी नहीं है इसके अतिरिक्त वह ईश्वर अनुपम है अर्थात जिसकी उपमा देने 'के लिये कोई वस्तु ही नहीं है तथा जो नित्य है । ऐसे देव को इम मानते हैं । समुच्चय रूपसे कहा जाय तो अठारह दूषणों से रहित देव को हम मानते हैं - अठारह दूषण ये हैं: श्रन्तराया दान-लाभ-वीर्य-भोगोपभोगगाः । हासो त्यती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥ १॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा च विरतिस्तथा । रागो द्वेषश्च नो दोपास्तेषामष्टादशाप्यमी ॥२॥ दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, हास्य, रात, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, काम, मि ध्यात्व, अज्ञान, निद्रा, अविरति, राग और द्वेष यह अठारह दूषणों का ईश्वर में अभाव है । हे राजन् ! अब आपको विश्वास हुआ होगा कि जैनी लोग जिस प्रकार ईश्वर को मानते उस प्रकार और कोई भी नहीं मा नते हैं । किन्तु अन्य लोग व्यर्थ ईश्वर मानने का दावा करते हैं.। 3
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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