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________________ चौथा प्रकरण । हुए थे । श्रीविजयसेनसूरि गच्छ की समस्त अनुज्ञा अर्थात् गच्छ सम्बन्धी समस्त अधिकार प्राप्त करके और भी अधिक शोभाय. मान हुए । जिस समय हीरविजयसूरिजी ने विजयसेनसूरिको गच्छ संबन्धि अनुज्ञा दी उस समय में हीरविजयसूरिजी ने यही शब्द कहे "हे महानुभाव ! इस गच्छका आधिपत्य और गच्छकी अनुशा के साथ में तेरा संबन्ध हो" और आजन्मपर्यन्त गच्छ को तेरा वि. योग कदापि न हो । विजयसेनसूरि के गच्छकी अनुज्ञा को प्राप्त करने के बाद चारित्र के मूल बीज रूप गच्छ की सम्पत्ति दिन प्रति. दिन बढ़ने लगी। एक दिवस गच्छ का पूर्ण प्रबन्ध निर्वाह करने में कुशल और सर्व प्रकार के विचार करने में समर्थ अपने शिष्य (प्राचार्य) को देख करके श्रीहीरविजयसूरि अपने मनो मन्दिर में विचार करने लगे कि यह बिजयने नसूरि यदि मेरेसे पृथक् बिहार करे तो बहुत देशों के भव्यों को पवित्र करने में भाग्यशाली बन सके और उसकी पदवी का गौरव भी बढ़ सके । इस प्रकार के विचार का निश्चय करके आपने भीबिजयसेनसूरि को पृथक बिहार करने की प्राज्ञा दी। इस पाझारूपी माला को अपने कण्ठ में धारण करके श्रीवि.. जयसेनसूरि विचरने लगे। बिचरते २ किसी रोज'चम्पानेर' न. गर को इन्हों ने प्राप्त किया। इस नगर में एक 'जयवंत' नाम का श्रेष्ठी रहता था। इसने बहुत द्रब्य का ब्यय करके श्रीविजय. सेनसूरिके पास सं० १६३२ बैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन प्रतिष्ठा करवाई। ___ यहां से विहार करके सूरीश्वर 'सुरतबन्दर' आए । नगर के लोगों ने एक बड़ा प्रवेशोत्सव किया । चातुर्मास यहां ही किया। सूरीश्वर की कीर्ति चारों भोर फैल गई। यहांपर एक 'भीभूषण'
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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