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________________ विजयप्रशस्तिसार । भोग ले । वत्स ! जैसे लता को वृक्ष प्राधार है वैसे मेरे लिय तू ही प्राधार है"। ऐस २ मधुर बचनों से समझाने पर भी हीरजी अपने विचार में निश्चल रहा और उसने धंद्यकी तरह वैराग्य वचनरूपी औषधि से अपनी बहन के हठरूपी रोग को दूर किया। - इसके बाद हीरजी उपाश्रय में आकर वंदनापूर्वक गुरु महाराज से कहने लगा-'हेभगवन् ! आपके पास मैं क्लेश को नाश करने वाली दीक्षा ग्रहण करने आया हूं । मेरी इच्छा है कि आपसे मैं दीक्षा ग्रहण करूं । प्राचार्यवर्य इस बालक के कोमल बचनों को सुनते ही हर्षित होगये । क्योंकि कहा भी है कि - 'शिष्यरत्नस्य प्राप्तौ हि हर्ष-उत्कर्षभाग् भवेत् । शिष्यरत्न की प्राप्ति में बड़े लोगों को भी हर्ष होता है । सामुद्रिक शास्त्र में कहे इए उत्तम लक्षणों को देख करके तपगच्छनायक श्रीविजयदानसूरिजीने निश्चय किया कि यह बालक होनहार गच्छनायक देख पड़ता है। अस्तु ! इसके बाद अतुल द्रव्य खर्च करके एक बड़ाभारी दीक्षा महोत्सव किया गया । खान पान नाटक चेटक इत्यादि बड़ी धूमधामके साथ एक सुंदर रथ में बैठाकर नगर के समस्त मनुष्यों से वेष्ठित इस कुमार को नगर के मध्य में हो करके लेचले। इस प्रकार ले बड़े समारोह के साथ वनको जाते हुए बालक को दर्शक लोग आश्चर्य में होकर देखने लगे। नियत किए हुए स्थान में सं० १५६६ कार्तिक कृष्ण द्वितीया के दिन शुभमुहूर्त में हीरकुमार ने श्रीविजयदान सूरीश्वर के पास दीक्षा ग्रहणकी । गुरु महाराजने इसका नाम हीरहर्ष' रक्खा। इसके बाद यह मुनि ज्ञान-दर्शन चारित्रकी आराधना सम्यकप्रकार से करते हुए, गुरुचरणाबिंद की सेवा में लवलीन रहते हुए गुरुवर्य के साथ में हर्षपूर्वक विचरने लगे।
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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