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________________ १५ तीसरा प्रकरण । देख कर बहुत ही हर्षित हुई। वा मधे प्रेम का पान करने लगी। .. प्रिय पाठक ! भव देखिये क्या होता है ?। इधर मुनिपुङ्गव सद्गुणनिधान भीविजयदानसूरीश्वरजी भी उसी नगर में विराजमान थे। जन्म संस्कार से हमारे हीरजीभाई का साधुपर पूर्ण प्रेम था । एक रोज हारजीभाइ उपाश्रय में चले गए । सूरीश्वर को नमस्कार करके एक जगह बैठगए । तब सूरि जी ने इन्हीं के योग्य बहुत ही मनोहर धर्म देशना दी । 'निकटमघीपुरुषों के लिये थोड़ी भी देशना बहुत उपकार कारक होती है।' बस ! उपदेश सुनतेही हीरजी को संसारसे विरक्तभाव पैदा होगया। हर्ष प्रकर्ष से गद गद होकर अपनी बहन के पास आकरके बड़े वि.. नय भाव से कहने लगेः: "हे लोदरि ! हे बहन ! मैंने आज संसार सागरसे तारने वाली और अपूर्व सुमको देनेवाली श्रीविजयदानसूरीश्वर महाराज के मुलाबिंद से धर्म-देशना सुनी है। अब मैं उन गुरूजी से अवश्य बक्षिा ग्रहण करूंगा। मतपय हे प्रिय बहन ! तू मुझे आशादे"। : इस बाक्य को सुनते ही बहन का कलेजा भर आया और वह प्रभुमुखी होती हुई अपने लघु बन्धु को बड़े प्यार से कहने लगी। । हे प्रिय बन्धो ! हे कोमल हृदयी वत्स ! तेरे लिये दीक्षा बडेही कष्ट से सेवन करने योग्य है । भाई ! दीक्षा लेने के बाद धूप-जाड़ा सहन करना पड़ेगा। खुलाशिर रखना पड़ेगा। केश का लुञ्चन करना पड़ेगा। नंगे पांव से चखना पड़ेगा। घर.२ भिक्षा मांगनी पड़ेगी। अनेक प्रकारकी तपस्यामों का सेवन करना पड़ेगा। बाइस परिसहों को सहना पड़ेगा। इस लिये अभी तेरे लिये दीचा योग्य नहीं है । तू प्रथम तो एक सुरस्त्री जैसी पदमणी स्त्री के साथ शादी करले । उनके साथ में अनेक प्रकार के सांसारिक सुखों को
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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