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________________ - दूसरा प्रकरण। सूरि', 'श्रीवीरसूरि', श्रीजयदेवसूरि', श्रीदेवानन्दसूरि ', 'भीविक्रमसूरि', 'श्रीनरसिंह सूरि', 'श्रीममुद्रसरि', 'श्रीमानदेवसूरि', 'श्रीविबुधप्रभसूरि', 'श्रीजयानन्दसूरि', 'श्रीरविप्रभसूरि', 'भी. यशोदेवसूरि', 'श्रीप्रद्युम्नसरि ', 'भीमानदेवसरि', 'भीविमलचन्द्रसूरी', 'श्रीउद्योतनसुरि', 'श्रीसर्वदेवसूरि', 'श्रीदेवसूरि', 'श्रीमर्षदेषसूरि', 'श्रीयशोभद्रसूरि ', ' श्रीनेमिचन्द्रसूरि', 'श्री. मुनिचन्द्रसूरि ', 'श्रीअजीतदेवसूरि',और श्रीविजयसिंहसरि' महोदयों के होने के बाद प्रारंभ से तेतालीसमी पाटपर पकही गुरु के शिष्य श्रीसोमप्रभसूति और श्रीमणिरत्नसूरीश्वर हुए । तदन्तर इस पाटधर चान्द्रकुल रूपी समुद्र में चन्द्र समान श्रीजगच्चन्द्रमुनीश्वर हुए। भीजगच्चन्द्रसूरीश्वर ने बारह वर्ष पर्यन्त आयंबिल तप की प्रा. राधना की । इस तप के प्रताप से पृथीपर कलंक' नाश हुआ अर्थात वह " तपा" ऐसी ख्याति संसार में प्रगट हुई। संवत१२८५ के साल से भीजगच्चन्द्रसरि से इस जगत में 'तपगच्छ' की प्रसिद्धी हुई। इस तपागच्छ से बढ़कर अन्यत्र सम्यकचरण-करण-समाचारी रूप क्रिया है ही नहीं। अब इस चवालीसमी पाटपर हुए जगच्चन्द्रसूरिसे अनुक्रमेण 'भीदेवेन्द्रसूरि, ''श्रीधर्मघोषसूरि, ''श्रीसोमप्रभसूरि,' 'श्रीसोमतिलकसूरि, ' ' श्रीदेवसुन्दरसूरि, ' 'भीसोमसुन्दरसूरि,' 'श्रीमुनिसुन्दरसूरि,' 'श्रीरत्नशेखर सूरि,' 'श्रीलक्ष्मीसागरसूरि,' 'श्रीसुमतिसाधुसूरि, ' महोदयों के होने के बाद पचवनवीं पाटपर सू. रीश्वरों में श्रेष्ठ ' श्रीहेमविमलसूरि' हुए । और इनकी पाटरूप कुंभदेशमें 'भीमानंदविमलसूरि' विराजमान हुए । यही श्रीमानंदविमलसूरि सं० १५८२ में एक दिन पचन नगर के निकट श्रीवटपल्ली नगरी में अपने शिष्य परिवार श्रीविनयभाव पण्डित आदिकों को साथ में
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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