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________________ विजयप्रशस्तिसार । बाद 'सुस्धित' और 'सुप्रतिबुद्ध' इस नामके दो प्राचार्य हुए । इन दोनों के द्वारा 'कौटिक' नामका गच्छ चला । क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि इन्हों ने एक कोटि बार सरिमंत्र का स्मरण किया था। यहां पर यह विचारणीय बात है कि श्रीहेमचन्द्राचार्य तो 'सुस्थित सुप्रतिबुद्ध' ऐसा अखंडित नाम वाले एक ही मुनिको मानते हैं । क्योंकि श्रीहेमचन्द्राचार्य प्रभुने अपने त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र की प्रशस्ति में लिखा है किःअजनि 'सुस्थितसुप्रतिबुद्ध' इत्यभिधयाऽऽर्यसुहस्तिमहामुनेः । शमधनो दशपूर्वधरोऽन्तिपद भवमहातरुभञ्जनकुञ्जरः ॥१॥ : अब गुर्वावली में तो दो अलग्न २ सुरि कहे हुए हैं । 'विजयप्रशस्ति' ग्रन्थकारने भी तदनुसार दो पृथक् नाम गिनाए हैं। इन कोटिक गच्छमें क्रमसे 'श्रीइन्द्रदिन्नसरि' 'श्रीदिनसूरि' और 'श्रीसिंहगिरि' होने पर दशपूर्व धर 'श्रीवज्रस्वामी नाम के प्राचार्य तेरहमी पाटपर हुए । इस वज्रस्वामीने बाल्यावस्थामें ही प्राचाराङ्गादि ग्यारह अंगों को निर्दम्भ हो के, पारिणामिकी बुद्धि से और पदानुसारिणी लब्धि करके कण्ठान किये थे । श्रीवज्र स्वामी की ख्याति से इस जगत में वज्र शास्त्रा प्रसिद्ध हुई । इस धज्र शाखा. की कीर्ति अद्यावधि लोगो में विद्यमान है । वज्रस्वामी के शिष्यों में मुख्य शिष्य 'श्रीवजूसेन' गच्छ के नायक हुए । इन 'श्रीवासेन सूरि को 'नागेन्द्र', 'चन्द्र', 'निवृति', और 'विद्याधर' नाम के चार शिष्य थे। इन चारों के नाम से चार कुल उत्पन्न हुए । जैसे किनागेन्द्रकुल, चान्द्रकुल, निवृतिकुल और विद्याधर कुल । इन चार कुलों में भी चान्द्रकुल जगत में बहुत प्रसिद्ध है । इस चान्द्रकुल के उत्पादक श्रीचन्द्राचार्य से अनुक्रम करके 'श्रीसामन्तभद्र सुरि, 'श्रीवृद्धदेवसूरि', 'श्रीप्रद्योतनसूरि', 'श्रीमान देवसूरि', श्रीमानतु.
SR No.022726
Book TitleVijay Prashasti Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
PublisherJain Shasan
Publication Year1912
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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