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________________ जाने से खटकार शब्द सुनाई दिया और वह अचानक ही पीछे मुड़कर देखने लगा। इसीबीच हाथ में से औषधि नष्ट हो गयी। गुणधर ने तापस के सामने सत्य हकीकत निवेदन की। तब तापस ने कहा भद्र! तेरे पास सत्त्व है, किन्तु पुण्य का संचय नही है। इसलिए तुम अपने स्थान पर वापिस लौट जाओ और संतोष धारण करो । उसकी वाणी का अवधारणकर, गुणधर किसी दूसरे तापस से मिला। तब उसने कहा वत्स! कहीं पर भी लालदूधवाले स्नुहिवृक्ष (थोर) को देखो । यदि वह मिल जायें तो मैं शीघ्र ही तेरी दरिद्रता मिटा दूँगा । खोज करते हुए गुणधर ने भी तथा प्रकार के स्नुहिवृक्ष को देखा । तापस ने अग्नि से उस वृक्ष को जला दिया। पश्चात् जलती हुई अग्नि में बलपूर्वक गुणधर को फेंक दिया। हलकापण के कारण, गुणधर अग्नि से बाहर निकल आया और तापस को अग्नि में फेंकने के लिए तत्पर हुआ । इस तरह उन दोनों के बीच लडाई शुरु हुई। उसी समय राजकुमार भी वहाँ आगया । गुणधर से सर्व वृत्तांत जानकर, कुतूहल वश कुमार ने उस तापस को अग्नि में फेंक दिया। तापस उसमें जलकर स्वर्णपुरुष बना । राजपुत्र ने उस स्वर्णपुरुष को ग्रहण किया और थोडा-बहुत स्वर्ण गुणधर को भी देकर उसे भेज दिया। गुणधर अपने नगर की ओर प्रयाण करने लगा। मार्ग पर इसे कोई मंत्रसिद्ध महापुरुष मिला। वे दोनों परस्पर मनोहर चर्चा करते हुए किसी स्थान पर रुक गये। वहाँ पर उन दोनों ने मंत्र प्रयोग से लाये गये मोदक आदि खाये। पश्चात् गुणधर ने सिद्ध से पूछा- आपको ऐसी शक्ति कहाँ से प्राप्त हुई है ? मंत्रसिद्ध ने कहा- मुझे किसी कापालिक ने वेतालमंत्र दिया था। उस मंत्र के प्रभाव से, प्राणिओं को संपूर्ण लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। गुणधर ने उससे वह मंत्र ग्रहण कर लिया। आगे बढते हुए वह अपने मामा के घर पहुँचा और सुखपूर्वक रहने लगा। एकदिन वह इच्छित कृष्णरात्रि के समय, मंत्र को सिद्ध करने के लिए श्मशान गया। आहुति कर जाप करने लगा। भूत-प्रेत आदि के द्वारा भयभीत करने पर, वह क्षोभित हो गया और मंत्रपद भूल गया। तब काल के समान वेताल क्रोधित हुआ और दंडे से प्रहारकर, पटक दिया । गुणधर मूर्च्छित होकर गिर पडा । मामा ने उसे स्वस्थ कर शीघ्र ही जयस्थल नगर पहुँचा दिया। वहाँ पर लोग - यह अभाग्यशेखर है, इस प्रकार उसका उपहास करने लगे। लज्जा से गुणधर ने खुद को फंसा लगाकर मर गया। इस प्रकार परिग्रह परिमाण से अविरत यह गुणधर, अत्यंत लोभ के कारण व्याकुल होते हुए विविध देश के मंडलों में भ्रमण किया, किंतु पाप हृदयवाले उसने धन का लेश भी प्राप्त नही किया । पुनः प्रकाशमान गुण समूहवाला यह गुणाकर न्याय मार्ग से धन का उपार्जन करते हुए पृथ्वी पर अत्यंत प्रसिद्ध 84
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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