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________________ पकडकर लक्ष्मी उसका अनुसरण करती है। पुण्य नही करनेवाले को सुख नही है, तप से तपे बिना इष्ट की सिद्धि नहीं होती है। असदाचारी की महिमा नही है और मूढ हृदयवाले को मोक्ष नही है। लोभ के वशीभूत मनुष्य धन होने पर भी संतोष प्राप्त नहीं कर सकता है और धनवान् पुरुषों के पैरों को सिर पर रखकर आनंदपूर्वक सोता है। अपने से ऊँचे-ऊँचे को देखते हुए इंद्र भी रंक बन जाता है। और संतोष रूपी अमृत से सिंचित आत्मा रंक होते हुए भी धनवान् बन जाता है। सर्वथा धान्य, धन आदि छोडने में असमर्थ पुण्यवंतो के द्वारा इच्छा का परिमाण करना चाहिए। इस प्रकार मुनिभगवंत की वाणी सुनकर, गुणाकर ने शुद्ध सम्यक्त्व सहित इच्छा परिमाण का नियम ग्रहण किया। किंतु गुणधर उनकी वाणी पर श्रद्धा नही करता हुआ, नियम ग्रहण नही किया तथा गुणाकर के नियम का हृदय से अनुमोदन भी नही किया। अत्यंत लोभ के वशीभूत वह गुणधर सोचने लगा - जो मनुष्य अल्प धन से खुद को कृतार्थ मान लेता है, उसपर भाग्य क्रोधित होकर अधिक धन नही देता है। यह बात सत्य मालूम पडती है, अन्यथा अद्भुत भुजबलवाले इस गुणाकर के मन का मनोरथ यहाँ पर इतने शीघ्र ही संकुचित कैसे हो गया है? इस प्रकार गुणाकर सद्भावों से तथा गुणधर असद्भावों से मुनि को नमस्कारकर घर लौट आये। एकदिन गुणधर, गुणाकर से बिना पूछे अनगिनत बेचने का माल गाडे आदि वाहनों में भरकर विविध देशों में पर्यटन करने लगा। व्यापार के द्वारा बहुत धन कमाकर अपने नगर की ओर वापिस लौटने लगा। बीच में बडी अटवी आई। उतने में ही वहाँ पर दावानल प्रकट हुआ। भयभीत बने सेवक लोग चारों दिशाओं में भाग गये और सब गाडे भस्मीभूत हो गये। भूखप्यास की पीडा से दुःखित गुणधर कैसे भी कर वहाँ से भाग निकला। सात रात्रियों के बाद, वह किसी गाँव में पहुँचा। एक तापस ने उसे देखकर खुद के घर ले गया और उसके प्राण स्वस्थ किये। पश्चात् तापस ने गुणधर का सारा वृत्तांत जान लिया। एकदिन तापस उसे किसी पर्वत के मध्यभाग पर ले गया। किसी औषधि को दिखाते हुए कहने लगा - सौम्य! इस औषधि को अब ध्यान से देख लो। इसे रात्रि के समय तुझे ग्रहण करनी है। तापस आगे कहने लगा - रात के समय तेजस्वी दीपशिखा के समान चारों ओर प्रकाश करती इस महा-औषधि को देखकर, बाये हाथ से पकडना और दृढ मुठ्ठि से इसके ऊपर-नीचे भाग को काट देना। बाद में पीछे की ओर नहीं देखते हुए सीधे चले आना। यह कार्य संपूर्ण करने पर, मैं तुझे धनवान् बना दूंगा। तापस के वचन को स्वीकारकर, गुणधर ने विधिवत् औषधि ग्रहण की। वह शीघ्रता पूर्वक वापिस लौटने लगा। उतने में ही पर्वत के शिखर से पत्थर के गिर 83
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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