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________________ श्मशान में लाया। महापुण्यशाली सुंदरी के तेज को सहन करने में असमर्थ मंत्रदेवता - अब मुझे इस पापकर्म में क्यों जोड़ा है? इस प्रकार बार-बार मंत्रसिद्ध से कहने लगा। क्रोध से आँखें डरावनी कर, वह मंत्रदेवता अदृश्य हो गया। सुंदरी भी जाग गयी और दीपक के प्रकाश से वन में चारों और देखने लगी। हा! यह क्या है? इस प्रकार व्याकुल बनी और नमस्कार महामंत्र का स्मरण करने लगी। तब चतुर मंत्रसिद्ध आनंद प्राप्तकर कहने लगा - मैं विद्या से तुम्हारी प्रिया को यहाँ लाया हूँ। तुम्हें जो इष्ट हो वह करो। वे चारों भी परस्पर कहने लगे कि जो पहले इस प्रिया का स्पर्श करेगा, वही प्रथम इसका संग करेगा। ऐसा संकेत कर उन्होंने यह निश्चय किया। काम से प्रेरित वे चारों भी सुंदरी की ओर दौडे। सुंदरी की शील महिमा जानकर, वनदेवता ने उन चारों को स्तंभित कर दिया। काष्ट प्रायः उन्हें देखकर मंत्रसिद्ध भयभीत हुआ और सुंदरी के पैरों में गिरकर विनयपूर्वक इस प्रकार विज्ञप्ति करने लगा - महासति! मैं तुम्हारे इस अचिंत्य माहात्म्य से अनजान था। जो मैंने अब ऐसी आचरणा की है, वह भविष्य में कभी भी नही करूँगा। मेरे पाप को क्षमा करो और मुझे अभयदान दो। सुंदरी मौन ही खडी थी और इतने में ही प्रातः समय भी हो चुका था। नगर लोगों के साथ शूर राजा भी वहाँ आगया था। काष्टमयी पुतली के समान निश्चल खडे उन विलासी पुरुषों से राजा ने कारण पूछा, किन्तु उन्होंने कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया। पास में खडी सुंदरी को देखकर उससे भी राजा ने इस रहस्य का कारण पूछा। सुंदरी भी मैं नही जानती हूँ। इस प्रकार कहकर शर्म से झुक गयी। उतने में ही मंत्रसिद्ध ने राजा से अभयदान प्राप्तकर वास्तविक हकीकत कह सुनायी। पश्चात् राजा ने उन पापीओं को कारागृह में डाल दिया और मंत्रसिद्ध से कहने लगा - हा! पापी! इस प्रकार तो तुम मेरे अंतःपुर की स्त्रियों का भी अपहरण कर लोगे। दंड के योग्य होते हुए भी, तुझे अभयदान दिया था। इसलिए मैं तुझे छोड रहा हूँ। इस प्रकार उसकी अवमाननाकर, राजा ने उसे देश से निकाल दिया। पश्चात् नागरिक लोगों के साथ राजा भी सुंदरी के पैरों में गिरा। श्रेष्ठ आचारवान् वसुपाल श्रेष्ठी भी वहाँ आगया था। राजा ने सुंदरी को हाथी पर बिठाकर नगरप्रवेश कराया। उस दिन से लेकर वह लोक में शीलसुंदरी के नाम से प्रसिद्ध हुई। जीवनपर्यंत निष्कलंक शील का परिपालनकर, शीलसुंदरी आयुष्य पूर्णकर देवलोक के लाखों अनुपम सुखों को प्राप्त किया। इस ओर उन चारों विलासी पुरुषों का सर्वस्व लूट लिया गया और लंबे समय तक कारावास में क्लेश प्राप्त किया। अंत में आयुष्य पूर्णकर शर्कराप्रभा नरक पृथ्वी में गये। इस प्रकार चतुर्थ व्रत के विषय में शीलसुंदरी की कथा संपूर्ण हुई। 80
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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