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________________ आयी। उसने भी उसी प्रकार से विवाह किया। पुस्तक देखकर आश्चर्यचकित हुई और इस प्रकार उस छंद का चौथा पाद लिखा - यदस्मदीयं नहि तत् परेषाम् - जो हमारा है वह दूसरों का नही है। वह भी चली गयी। पुनः चौथे प्रहर में पुरोहितपुत्री आयी। विवाहकर, पुस्तक में लिखे श्लोक को पढा। रहस्य जानकर तेजमतिवाली उसने भी इस प्रकार श्लोक लिखा - व्यवसायं दधात्यन्यः फलमन्येन भुज्यते। पर्याप्तं व्यवसायेन प्रमाणं विधिरेव नः॥ अन्य प्रयत्न करता है और अन्य ही फल भोगता है। उससे प्रयत्न से पर्याप्त हुआ। हमारे लिए भाग्य ही प्रमाण है। पश्चात् अपने अपराध की शंका से, उन चारों कन्याओं ने विनय से झुककर उस वृत्तांत के बारे में अपनी-अपनी माता से कह सुनाया। बाद में उन्होंने अपने पति से कहा। प्रातः यह मुसाफिर नहीं मिलेगा ऐसा विचारकर, राजा ने शीघ्र ही सेवकों के द्वारा उसे बुलाया। पुरंदरश्रेष्ठी ने भी अपने पुत्र सिद्धदत्त को रात्रि के समय संपूर्ण नगर में खोजा। उसके समाचार मिलने के बाद प्रातः राजसभा में आया। सिद्धदत्त को देखकर सभी आनंदित हुए और उसकी पुण्यप्रबलता से विस्मित हुए। पाणिग्रहण के पश्चात् राजा ने उसे पाँच सो गाँव दिये। सिद्धदत्त भी सुख-समृद्धि से युक्त जीवन बीताने लगा। ज्ञानी गुरु भगवंत के मुख से अपने पूर्वभव का श्रवणकर संसार से विरक्त हुआ। दीक्षा ग्रहणकर सम्यग् आराधना से निर्वाण प्राप्त किया। कपिल भी घर की चिंता से धर्म रूपी धन से भ्रष्ट हुआ। और निराशा पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। आयुष्य पूर्णकर चारों गतियों में बार-बार भ्रमण करते हुए सैंकडों जन्म-मरण की परंपराएँ प्राप्त की। इस प्रकार तीसरे व्रत के पालन से सिद्धदत्त सुखी हुआ और नहीं पालन करने से कपिल अत्यंत दुःखी हुआ। तृतीय अणुव्रत के विषय में सिद्धदत्त-कपिल की कथा संपूर्ण हुई। ___मुनि भगवंत कहने लगे - अदत्तादान विरति ग्रहण से गुण तथा अविरति से अवगुण जानकर, प्रयत्नपूर्वक तीसरे अणुव्रत का पालन करना चाहिए। यह सुनकर मेरी पत्नियों ने कहा - भगवान्! हम कभी भी, किसी की भी अदत्त वस्तु ग्रहण नहीं करेंगें। आज के बाद घर में रही अणुमात्र छोटी वस्तु या बडी वस्तु भी हम पति से छिपाकर भी नहीं लेगें। उनकी बातें सुनकर मैं सोचने लगा - यह बात भी मेरे ही हित में है। मैं शांत बना और निश्चय किया कि साधु को दो-दो बार ही लकडी से प्रहार करूँगा। मैं निश्चल वही खड़ा था कि उतने में ही मुनिभगवंत सर्वोत्तम ऐसे चौथे अणुव्रत के विषय में इस प्रकार कहने लगे - प्रायःकर सद्शीलधारी स्त्रियों पर विष, सर्प, अग्नि और शत्रुगण प्रभावशाली नही होतें हैं 78
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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