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________________ परस्पर इस प्रकार संभाषण करने लगी - बाल्यावस्था से लेकर अब तक हम मिल-जल कर रहें हैं और आपस में खुश हैं। अब यौवन अवस्था में एक-दूसरे के विरह से दुःखित होंगें। तब राजपुत्री ने कहा - सखी! मेरी बात सुनो। जबतक पिता हमारे विवाह के विषय में किसी से बातचीत न कर ले, उससे पहले ही हम सब मिलकर किसी वर को चुन लें जिससे कि हृदय में रहा हुआ यह वियोग रूपी अग्नि हमें न जलायें। उन तीनों कन्याओं के द्वारा यह बात स्वीकार करने पर, राजकन्या ने किसी सुंदर राजकुमार से पति बनने का आग्रह किया। जब कुमार मना करने लगा, तब वे चारों भी मरने के लिए तत्पर हुई। भय से कुमार ने उनकी बात मान ली। कहा भी गया है कि - स्त्रियाँ किस-किस को अपने वश नहीं कर सकती हैं? उन्होंने आगे कहा - स्वामी! शुक्ल अष्टमी की रात में, नगर दरवाजे के समीप में रहे हुए जीर्ण देवकुल में, चतुर ऐसे आप हम चारों कन्याओं के साथ विवाह करेंगे। यह सुनकर कुमार का हृदय चिंता-सागर में डूब गया। शुक्ल अष्टमी आजाने पर, स्वामी द्रोह से मैं अपने कुल को कैसे कलंकित कर दूं? ऐसा अपने हृदय में विचारकर, संध्या के समय निःस्पृह कुमार नगर से बाहर चला गया। रात के समय, विवाह की साधन-सामग्री साथ में लेकर, पहले राजकन्या देवकुल में अकेली ही आयी। निद्राधीन ऐसे उस सिद्धपुत्र को देखकर, राजकन्या कहने लगी - स्वामी! आप निश्चिंत कैसे सो रहे है? बाद में उसे जगाकर गान्धर्वविवाह से पाणिग्रहण किया। तब राजकन्या ने कहा - नाथ! आप मेरा मनोवांछित पूर्ण करे। वैसे ही शेष तीनों कन्याओं की भी आप प्रार्थना स्वीकार करेंगे। वाहन कहाँ है? जिससे हम शीघ्र ही यहाँ से दूसरी जगह जा सकते है। तब सिद्धपुत्र ने कहा - तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण हो जायेंगें। अब मैं थका हुआ हूँ और मुझे सोने दो। क्या यह पुरुष वह राजकुमार नहीं है? ऐसी शंका करती हुई उस राजकुमारी ने दीपक से वहाँ पर प्रकाश किया। तब उसने रूप से सुंदर और सौभाग्यशाली ऐसे उस सिद्धदत्त को देखा। समीप में ही रखी हुई किताब को खोलकर उसने छंद का पहला पाद पढा। यह सत्य ही लिखा है ऐसा विचारकर, अपनी शेष तीनों सखियों के विश्वास के लिए, काजल से उस छंद के द्वितीय पाद को इस प्रकार लिखा - किं कारणं दैवमलंघनीयम्। क्योंकि भाग्य का उल्लंघन करना अशक्य है। पश्चात् राजकन्या महल में लौट आयी। दूसरे प्रहर में मंत्रीपुत्री आयी। उसने भी वैसे ही सिद्धदत्त के साथ विवाह किया। और वही रही हुई पुस्तक में इस प्रकार तृतीय पाद लिखा - तस्मान्न शोचामि न विस्मयो म - उसी कारण से, मुझे न शोक है और नही आश्चर्य। कृतार्थ बनी वह मंत्रीपुत्री वापिस घर लौट आयी। तीसरे प्रहर में श्रेष्ठीपुत्री 77
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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