SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा सोचकर गुणसुंदरी ने कहा-यदि पहले भी आप मेरे कार्य करने में समर्थ थे, तो आप को छोड़कर मुझे दूर श्रावस्ति जाने का कोई प्रयोजन नहीं था। तब मैंने आप से विवाह किया होता, तो हम दोनों के कुल और शील कलंकित नहीं होते। क्योंकि कुमार अवस्था में, युवान् का सब विरोध रहित होता है। यदि अब हमारा मिलन होगा, तो लोक में निंदा होगी, कुल की मलिनता और परलोक में भी भयंकर दुःख देनेवाला दुर्गतिगमन होगा। इसलिए महासत्त्वशाली! अब अच्छी प्रकार से विचार करना। बुद्धिमंत पुरुष वे ही कार्य करते हैं, जिससे भविष्य में हित होता हो। इस प्रकार के विविध वचनों की रचना से आनंदित बने वेदरुचि ब्राह्मण ने अपने चित्त में सोचा-मैंने कार्य के सत्य और सरल उपाय को नहीं जाना था। परंतु जिसके लिए इतना क्लेश सहा है, उसको ऐसे ही कैसे छोड़ दूँ? फिर उसने गुणसुंदरी से कहा-तुम जो कह रही हो, वह सत्य है। किन्तु भद्रे! मैं निमेष मात्र के लिए भी तेरा विरह सह नहीं सकता हूँ। क्योंकि इतने समय तक, मैं तेरी प्राप्ति की इच्छा से ही प्राण धारण किये हैं। उससे जो होनेवाला है, वह हो, मैं तुझे छोड़नेवाला नहीं हूँ। . उसके निश्चय को जानकर, बाहर से दिखावा करती हुई गुणसुंदरी ने कहा-आपके इष्ट को पूरा करना मेरा कर्तव्य है। किन्तु मैंने दुर्लभ महामंत्र की साधना प्रारंभ की है। उसके लिए चार मास पर्यंत ब्रह्मचर्यव्रत का स्वीकार किया है। दो मास व्यतीत हो चुके हैं और शेष दो मास हैं। साधना के प्रभाव से पुत्र, संपत्ति और सौभाग्यता प्राप्त होती है। उसके बाद तेरा इष्ट करूँगी। यह तो मेरे लिए गुणकर्ता ही है, इस प्रकार सोचकर वेदरुचि आनंदित हुआ और उसकी बात स्वीकार की। गुणसुंदरी भी कृत्रिम प्रीति दिखाती हुई, गृहकार्य करने लगी। स्नान, अंजन आदि छोड़कर, वह तप से अपने देह को सुकाने लगी। विरस और कम भोजन से उसने अपने शरीर को कृश बना दिया। नियम लगभग पूर्ण हो चुका था। एक दिन वह रात के समय विलाप करने लगी। पूछे जाने पर, उसने शूल की पीड़ा के बारे में कहा। तब वेदरुचि ने मणि, मंत्र आदि का प्रयोग किया। किसी भी प्रकार से जब शूल की पीड़ा कम नहीं हो रही थी तब गुणसुंदरी ने कहा-मैं आपके साथ गृहवास के लिए अयोग्य हूँ, क्योंकि मुझे अकस्मात् ही ऐसा भयंकर दुःख आ पड़ा है, तीव्र सिरदर्द मेरे शरीर को जला रहा है। सभी सांधे तूट रहे हैं। ऐसे दुःख रूपी दावानल से जलायी गयी मैं अपने प्राणों को धारण करने में असमर्थ हूँ। आपने जो मेरे लिए कष्ट किया था, उससे आपका प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ है। यह मेरे चित्त को अत्यन्त दुःखी कर रहा है। अब मैं जीवित नहीं रह सकती, इसलिए मुझे काष्ठ लाकर दें। इस प्रकार से विलाप करती उसे देखकर 31
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy