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________________ ऋद्धिसुंदरी ने जीवनपर्यंत सुंदर पालन किया और इहलोक-परलोक में भी सुखी हुई। ॥ ऋद्धिसुंदरी चरित्र संपूर्ण ॥ अयोध्या नगरी में सुघोष पुरोहित की गुणसुंदरी पुत्री थी। गुणसुंदरी यौवन अवस्था में आयी। पुरोहित वेदशर्मा ब्राह्मण के पुत्र वेदरुचि ने उसे देखा। गुणसुंदरी को देखकर वह सोचने लगा-मैं धन्य हूँ, जिसने इसे देखा है। यदि मैं इससे विवाह कर लूँ, तो मेरा जन्म सफल हो जायेगा। किन्तु उससे विवाह करने का उपाय न मिलने से, वेदरुचि चिंतित रहने लगा। पिता के पूछने पर, वेदरुचि ने सत्य हकीकत कही। यह बात सुनकर पिता भी वेदरुचि के दुःख से दुःखित हुआ। उसने जाकर सुघोष पुरोहित से अपने पुत्र के लिए गुणसुंदरी की प्रार्थना की। किन्तु, सुघोष ने श्रावस्ति नगरी के नंदन नामक पुरोहित को अपनी कन्या दे दी थी। फिर भी, वेदरुचि ने गुणसुंदरी का राग नहीं छोड़ा था। उसको प्राप्त करने के लिए वेदरुचि ने बहुत से उपाय किये, किन्तु वे सब उषरभूमि में वर्षा के समान व्यर्थ गये। श्रावस्ति नगरी से नंदन पुरोहित अयोध्या नगरी में आया और गुणसुंदरी से विवाह कर, वापिस अपनी नगरी में लौटा। फिर भी, वेदरुचि, गुणसुंदरी को भूल न सका। वह एक पर्वत की दुर्गम पल्ली में गया। वहाँ उसने लंबे समय तक पल्लीपति की सेवा की। पल्लीपति के खुश होने पर, उसने अपना कार्य निवेदन किया। वेदरुचि के कथन अनुसार पल्लीपति ने श्रावस्ति नगरी पर भीलों की धाड़ डाली और नगरी को लूट लिया। विलाप करती गुणसुंदरी को ग्रहणकर, वेदरुचि आनंदित हुआ। उसे पल्ली में ले जाकर कहने लगा-सुंदरी! उस समय जो तूने मेरा चित्त का हरण कर लिया था, वह वापिस दे दो। उसके बिना मुझे सब शून्य प्रतीत हो रहा है। भाग्य ने तुझे, मुझ से अलग कर दिया था, तो भी तुम सदैव मेरे हृदय में निवास करती हो, स्वप्न में दिखायी देती हो, दिशाओं में दिखायी देती हो, और जीभ पर सतत तेरा ही नाम रट रहा हूँ। वेदरुचि के इस प्रकार कहने पर, विचारशील गुणसंदरी ने कहा-मैं तुझे नहीं पहचानती हूँ। मैंने कब और कैसे तेरा मन हरण किया था। तब वेदरुचि ने अपनी पूर्वघटना सुनायी। वह सुनकर गुणसुंदरी ने सोचा-हा! रागांध बने यह मुझे कहाँ भीलों की पल्ली में ले आया? चाहे मेरुपर्वत चलित हो जाये अथवा सूर्य पश्चिमदिशा में उग जाये, फिर भी जीवित रहते हुए मैं अपने कुल और शील को मलिन नहीं करूंगी। मैं किसी भी तरह इसे समझाकर अपने निर्मल शील की रक्षा करूँगी। शील की रक्षा के लिए माया का सेवन भी भावी शुभ के लिए ही होता 30
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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