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________________ अनुमोदना के कारण कर्म हल्के हो जाने से, सुविशुद्ध संयमरस की प्राप्ति से कर्ममल का प्रक्षालन कर, उन दोनों ने अनंत केवलज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार राजन्! मैंने इस महाश्चर्य के बारे में आपके सामने विज्ञप्ति की है। पृथ्वीचंद्र राजा भी इस चरित्र को सम्यग् प्रकार से सुनकर विचार करने लगावह गुणसागर वास्तव में गुणसागर ही है, जिसने संपूर्ण पापसमूह के क्षय हो जाने से अपने कार्य को सिद्ध कर लिया है। माता-पिता तथा पूजनीयों के दाक्षिण्य वश, आत्मकार्य में भी उदासीन रहते हुए मैं जान-बूझकर इस राज्य नामक कूटयंत्र में क्यों गिर पड़ा हूँ? मैं कब भव का मथन करनेवाली भगवती महादीक्षा को ग्रहण करूँगा? मैं कब शत्रु-मित्र पर समवृत्तिवाला बनकर निर्बंध विचरण करूँगा? इस प्रकार भावना के वश से क्षणमात्र में ही संपूर्ण कर्मों का क्षयकर, पृथ्वीचंद्र राजा केवलज्ञान प्राप्त किया। राजा को केवलज्ञान प्राप्ति के समाचार सुनकर, संवेगरंग से युक्त मनवाली सोलह राजप्रियाओं ने केवलज्ञान प्राप्त किया। तब सुधन सार्थवाह ने पृथ्वीचंद्र महामुनिंद्र से विज्ञप्ति की - भगवन्! हे समतानिधि ! आपमें और गुणसागरमहर्षि में बंधुओं के समान, समानता दिखायी देती है। यहाँ पर क्या रहस्य है? पृथ्वीचंद्र केवली ने कहा- मैं पूर्वभव में कुसुमायुध राजा था। गुण रूपी मणियों से युक्त सागर के समान, वह मेरा कुसुमकेतु पुत्र था। वह ही अपने गुणों के अनुरूप यथार्थ नाम धारण करनेवाला गुणसागर है। इसलिए हम दोनों में सदृशता दिखायी देती है। केवली भगवंत के वचन सुनकर, सुधन ने अपना सिर धुनाया । परमबोध प्राप्तकर तथा पापों को दूर कर उसने हृदयपूर्वक गृहस्थधर्म को स्वीकारा और इहलोक-परलोक में सुखी हुआ। अनेक लाख वर्ष पर्यंत केवली पर्याय का पालनकर, पृथ्वीचंद्र आदि सभी ने मोक्षलक्ष्मी का आश्रय लिया। इस प्रकार पं.श्रीसत्यराजगणि द्वारा विरचित श्रीपृथ्वीचंद्रमहाराजर्षि चरित्र में गुणसागर-पृथ्वीचंद्र केवल उत्पत्ति वर्णन नामक ग्यारहवाँ भव वर्णन संपूर्ण हुआ। ॥ श्री पृथ्वीचंद्रगुणसागर चरित्र संपूर्ण हुआ ॥ ग्रंथकर्ता की प्रशस्ति (१) पृथ्वीचंद्र राजर्षि का यह चरित्र सदा सज्जन श्रोताओं का पापनाशक तथा विघ्नरूपी पूर को सदा शांत करनेवाला है। जो शांत तथा एकाग्र मनवाले बनकर इसका श्रवण करते हैं, वे सभी पापों का क्षयकर शीघ्र ही कल्याण की श्रेष्ठतावाले मोक्षलक्ष्मी का आश्रय लेते हैं। 130
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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