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________________ को एक सुंदर पुत्र हुआ। पुत्र के गर्भ में रहते समय, माता ने स्वप्न में क्षीरसमुद्र का पान किया था। इसलिए उस पुत्र का गुणसागर नाम पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुआ। क्रम से बढते हुए यह यौवन अवस्था में आया। परंतु आजन्म से गुणसागर भोगों से विरत था। वह रमणीय स्त्रियों पर लेशमात्र भी मन नहीं देता था। उसी नगर में आठ प्रसिद्ध श्रेष्ठी थे। उनकी आठ पुत्रियाँ थीं। वे भी यौवन-अवस्था में आयी। आठों कन्याओं ने गुणसागर कुमार को देखकर उस पर राग बांधा और उसे ही अपना पति बनाने की प्रतिज्ञा की। कन्याओं के निश्चय को जानकर उनके पिताओंने गुणसागर के साथ विवाह निश्चित किया। ___एकदिन झरूखे में बैठे गुणसागर ने मूर्तिमंत धर्म के समान तथा प्रशमरस से युक्त मुनिभगवंत को देखा। मैंने ऐसा रूप कहीं पर देखा है। इस प्रकार ऊहापोह करने लगा। पूर्वभव में खुद के द्वारा पालन किए गए चारित्र धर्म का स्मरण कर, विशिष्ट संवेगरंगवाला हुआ और माता-पिता से कहने लगा-अब मैं इस संसार रूपी कारागृह में रहना नहीं चाहता हूँ। इसलिए प्रसन्न होकर मुझे व्रत ग्रहण की आज्ञा दें। उन्होंने कहा-वत्स! इस यौवन अवस्था में व्रत क्यों ले रहे हो? अथवा वत्स! यदि तुझे व्रत ग्रहण करने की प्रबल इच्छा है तो पहले कन्याओं के साथ विवाह करो, पश्चात् तेरा इच्छित करना। माता-पिता के वचन को स्वीकार कर, गुणसागर कुमार ने महोत्सवपूर्वक उन आठ कन्याओं के साथ विवाह किया। कन्याओं के साथ पाणिग्रहण करने के बाद, कुमार सुखपूर्वक अपने माता के घर में बैठा था।' उतने में ही वहाँ पर आश्चर्यकारी नाटक प्रारंभ हुआ। किंतु गुणसागर अपने नाक पर आँख स्थिरकर, इंद्रिय के समूह को संयमित कर, एकाग्र मनवाला होकर इस प्रकार सोचने लगा-मैं प्रातः मुनि बनूँगा। तब मैं तप करूँगा और गुरुजनों का विनय करूँगा। व्रत, योगों में प्रयत्न करूँगा तथा ध्यान, नियमों में स्थिर रहूँगा। इस प्रकार निश्चल से ध्यान करता हुआ, पूर्वभव में अभ्यस्त श्रुत का स्मरण करता हुआ भावसंयम का स्वीकार किया। निश्चल संवेगरस से सिंचित तथा उत्तरोत्तर चढते निर्मल अध्यवसाय के वश से, गुणसागरमुनि प्रतिसमय घातिकर्मों को जलाते हुए क्षणमात्र में ही निर्मल केवलज्ञान प्राप्त किया। उसकी नूतन विवाहित पत्नियों ने भी अखिल कर्मरूपी उष्णता के संताप को दूर कर तथा भावचारित्र का स्वीकार कर, वहीं पर केवलज्ञान प्राप्त किया। उनके केवलज्ञान की महिमा करने के लिए इंद्र वहाँ पर आएँ। आकाश में दुंदुभियाँ बजी और भव्य प्राणियों ने हर्ष धारण किया। अपने पुत्र तथा पुत्रवधूओं के केवलवैभव को देखकर रत्नसंचय और सुमंगला भी बार-बार उनकी अनुमोदना करने लगे। 1 किसी कथानक में चौरी में चिंतन करते करते केवलज्ञान हुआ कर लिखा है। विशेष प्रचलित भी यही है। 129
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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