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________________ मोहकुमार को अपने राज्य पर स्थिापित किया और शेष पुत्रों को भी यथोचित पद प्रधान किएँ। कर्मपरिणाम राजा ने मोहकुमार से कहा वत्स! पूर्व में भी तुम सर्व अधिकारी था। अब विशेष से नागरिक लोगों की रक्षा करना । मैं योग्य स्थान पर रहकर राज्य की कारवाही देखूँगा। अब मोहकुमार भी जनप्रिय और निष्कंटक महाराज बना। एकदिन जगत्पुर में इस प्रकार शोर मचने लगा सुभटों ! दौड़ो, दौड़ो ! चारित्र राजा प्रजाओं का अपहरणकर शिवनगर में ले जा रहा है। यह सुनकर क्रोधित मोह राजा ने कहा - मंत्रियों! यह कहाँ से उचित है कि मेरे जीवित रहते - भी, नगरी से प्रजाओं का अपहरण किया जा रहा है? यह चारित्र राजा कौन है ? राग, द्वेष, सुभटों । जगत्पुर में प्रख्यात कीर्तिवाले तुम दोनों अपने पुत्रों को साथ में लेकर तैयार हो जाओ। मिथ्यादर्शनमंत्री ! तुम्हें राज्य की देख-रेख करने के लिए नियुक्त किया है। क्या तुम नही जानते हो कि नगर से प्रजाओं का अपहरण हो रहा है? क्या तुम सुखपूर्वक सो रहे हो? हे ज्ञानावरण आदि योद्धाओं ! तुम शीघ्र तैयार हो जाओ। आज हम चरित्र राजा के मद को दूर कर देतें हैं। तब अविवेक नामक मंत्री ने विज्ञप्ति की - देव! शांत बने, व्याकुल न हो। शोर का कारण सुने । पूर्व में आपके पिता ने चिरस्थिति नामक आपकी मासी के विवाह में, इसी जगत्पुर के अंतर्गत रहे एक सो सात पाटक (गाँव का अमूक हिस्सा) करमोचन के समय भेंट किए थे। आपकी मासी ने उन पाटकों पर सुंदर, सौम्य और तेजस्वी धर्मराजा को स्थापित किया है। एकांत हितकारी ऐसा वह धर्मराजा, बाहर के लोगों को सुख-समृद्धि देता है और विधि का पालन करनेवालों को विशेष रूप से सहायता करता है । उसी की कृपा से अत्यंत सुख से युक्त ऐसे अरिहंत, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि को देखकर, प्रायःकर अनेक लोग सुख की इच्छा से उसकी सेवा कर रहें हैं। राजन् ! जिनको मिथ्यादर्शन आदि आपके सेवक दुर्गति के संकट में डाल रहें हैं, वे कालस्थिति की सहायता से बाहर निकलकर, खेदित होते हुए, उसी धर्मराजा का आश्रय लें रहें हैं। धर्मराजा ने भी चिरसमय तक राज्य का परिपालनकर, अपने चारित्र नामक पुत्र को राज्य का भार सौंपा है। उसे परकार्यों में प्रयत्नशील देखकर, दीन लागों ने आकर इस प्रकार विज्ञप्ति की - स्वामी ! मोह के सेवकों से दुःखित होकर, हम आपके पाटकों में आएँ है । आप हमें निर्भय स्थान बताने की कृपा करें। तब चारित्र राजा ने कहा भद्र! वह स्थान अत्यंत दुर्गम मुक्तिपुरी ही है। परंतु वहाँ पर सीढियाँ नही होने से, उस पर चढना कठिन है। इसलिए तुम विवेकपर्वत पर चढो। इस पर्वत पर चढने से, अभिमानी मोह के सेवक तुम्हारा पराभव नही कर 121 -
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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