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________________ बहुत से राजाओं का नगर में संगम होने से, उस नगर का राजसंगम नाम प्रसिद्ध हुआ। पश्चात् राजशेखर राजा ने हर्षपूर्वक अपनी बत्तीस कन्याएँ कुसुमायुध राजा को दी। एकदिन नगर के उद्यान की सीमा में, बहुत शिष्य परिवार से युक्त गुणसागर केवली ने समवसरण किया। उन्हें वंदन करने के लिए जय आदि सभी राजाएँ वहाँ पर आएँ। तब कृपा-सागर, जगत् हितकर्ता, केवली भगवंत ने मधुर और गंभीर वाणी में इस प्रकार धर्मदेशना प्रारंभ की - भव्यप्राणियों! इस मानवभव को प्राप्तकर सर्वथा आत्महित करो। जिससे काम की उत्पत्ति न हो, और जहाँ पर लेशमात्र भी क्रोध, मान आदि न हो उस पर प्रीति करो। यह सुनकर मानतुंग राजा ने पूछा - भगवान् का वचन गंभीर है और हम अज्ञानी है। आपके वचन के रहस्य को हम समझने में असमर्थ है, इसलिए हम आपसे परमार्थ पूछ रहे हैं। केवलीभगवंत ने कहा - मोहराजा ने तुम्हें अज्ञान रूपी मदिरापान कराया है, इसलिए तुम परमार्थ से अज्ञ हो। राजशेखर राजा ने पूछा - भगवन्! यह मोह राजा कौन है? और उसका राज्याधिकार कहाँ पर है? केवलीभगवंत ने कहा - परमार्हत् और धर्मराजा का दूत सुबोध जब तुम्हें सुदर्शन नामक चूर्ण देगा, तभी तुम वास्तविक सत्य को पहचानोगे। वह सुबोध शीघ्र ही आ जाएगा। जबतक वह न आए, तब तक तुम्हारे कौतुक के लिए इनका स्वरूप बताता हूँ। उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो - यह जगत्पुर विविध आश्चर्यों से भरा हुआ है। यहाँ पर अखंडित आज्ञावाला, देव, राजाओं से सेवित, शिष्यों को इष्ट देनेवाला, दुष्टों को अनिष्ट देनेवाला, मद रहित ऐसा कर्मपरिणाम नामक राजा पुष्कल राज्य का स्वामी है। उसकी कालपरिणती नामक प्रसिद्ध पत्नी है। वह पति पर अत्यंत अनुरागी और उसके चित्त के अनुसार वर्त्तन करती है। एकदिन उन दोनों दंपतियों के चित्त में इस प्रकार चिंता उत्पन्न हुयी कि - राज्य का विस्तार करनेवाला हमारा अंतरंग परिवार कितना है? कौन कार्य में रत है? पुनः कौन कृपापात्र है? तब उन दोनों ने राग, द्वेष आदि सुभटों से युक्त, संपूर्ण राज्य कार्य की चिंता में दत्त चित्तवाले मोह कुमार को देखा। सप्त व्यसन नाम से प्रसिद्ध उनके दूसरे भी पुत्र थे, जिनक नाम इस प्रकार है - द्यूत नामक, मांस आस्वाद नामक, मद्य, वेश्यागमन, पापर्द्धि, चौरिक और परस्त्रीगमन। वे पिता के अनन्य भक्त है और भव्यप्राणियों को सदा संसार में स्थिर कर रखतें हैं। क्योंकि सात व्यसन भी भयंकर नरक में ले जातें हैं। राजा ने अपनी पत्नी से कहा - प्रिये! अब पुत्रों को राज्यभार सौंपकर, हमें सुखपूर्वक रहना चाहिए। पत्नी ने कहा - स्वामी! यह ही योग्य है। इस प्रकार करने पर ही ये पुत्र तीनों जगत् में प्रशंसापात्र बनेंगें। पश्चात् कर्मपरिणाम राजा ने 120
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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