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________________ और दूसरी बात यह है कि - रूपादि पदार्थ बधिर, अंध व्यक्ति को प्रत्यक्ष नहीं होने पर भी, वे ही पदार्थ अक्षत अंगवाले मनुष्य से प्रत्यक्ष है। वैसे ही छभस्थों से यह जीव अप्रत्यक्ष होने पर भी ज्ञान आदि अतिशय से संपन्न परममुनि को जीव प्रत्यक्ष ही है। इंद्रिय ग्राह्य गुण रहित होने के कारण, यह जीव चर्मचक्षु प्राणियों को अप्रत्यक्ष है। किंतु इसे सिद्ध और सर्वज्ञ भगवंत तथा ज्ञानसिद्धिवाले साधु देख सकतें हैं। भद्र! जो तूंने कहा था कि चेतना, यह पाँच भूतों का परिणाम है, तो क्या वे भूत चेतनावाले हैं अथवा अचेतना हैं? यदि चेतनावालें है तो एकेन्द्रिय आदि जीव सिद्ध हो गये हैं। अथवा अचेतनावालें हैं तो उनके समूह से भी चेतना का परिणाम कैसे संभवित है? रेती पीसने से तैल नहीं निकलने के समान, यदि इन पाँच भूतों में प्रत्येक में चेतना नही है, तो उनके समुदाय में भी चेतना नही है। तुम यह मत कहना कि जल, गुड, चावल आदि प्रत्येक में मद नहीं होते हुए भी संयोग से मद उत्पन्न करने का सामर्थ्य प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि जल आदि में बलवृद्धि उत्पन्न करने से तथा मद का लेश होने से सामर्थ्य है। इत्यादि मुनिराज के द्वारा सविस्तार कहने से, प्रत्युत्तर देने में असमर्थ होने के कारण कपिञ्जल मौन रहा। गुरु ने पुनः कहा - भद्र! यह तेरा स्वाभाविक कुबोध नही है। किंतु पूर्व पाप से जन्मांध भाव को प्राप्त तथा मिथ्यात्व के उदय से, डर से आच्छादित केशव नामक मामा ने तुझे दुष्ट शिक्षा दी है। तब पुरुषोत्तम राजा ने मुनिपुंगव को नमस्कार कर इस प्रकार विज्ञप्ति की - भगवन्! इसने पूर्व में क्या किया था, जिससे ऐसा फल मिला है? मुनि ने कहा - इसी भरतक्षेत्र में वीरांगद नामक राजा था, जिसने शत्रु समूह को दास बना दिया था और अपने प्रताप से सूर्य को भी हल्का बना दिया था। चंद्र पर कलंक के समान, सकल गुणों से युक्त होने पर भी, राजा ने शिकार का दूषण नही छोडा। एकदिन राजा शिकार करने के लिए वन में पहुँचा। हिरण, खरगोश आदि का शिकार किया। इसीबीच एक सूअर का बालक झाडियों के बीच किसी जगह पर छुपकर खडा हुआ। निर्दयी राजा ने उसके वध के लिए बाण फेंका। पश्चात् उस स्थान पर जाकर देखने लगा। सूअर तो दिखायी नही दिया किंतु ध्यानस्थ साधु के पैरों के बीच, उस बाण को पडा देखा। राजा चिंतित होकर सोचने लगा - अहो! मैं महादुष्ट चरित्रवाला हूँ। मुनिघात के पाप से लेशमात्र भी स्पर्श नही किया गया हूँ। इस प्रकार विचार करते हुए विनयपूर्वक शरीर झुकाकर साधु के चरणकमलों में गिरा। मुनिवर से क्षमा माँगी और कहा-मुझ पापी ने यह अपराध किया है। मुझ पर प्रसन्न बने, मैंने अपना सिर आपके चरणों में झुका दिया है। मुनि ने ध्यान संपूर्ण कर कहा - राजन्! डरो मत! मुनि रोष-तोष से युक्त नही होते हैं। केवल मेरा वचन सुनो। हाथी के कान समान चंचल ऐसे भोग 113
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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