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________________ के बारे में कहा। उसने भी कहा कि-महाराज! यह योग्य ही है। पश्चात् राजा ने दिग्यात्रा प्रयाण की भेरी बजवायी। शुभ दिन में कनकध्वज राजा ने सामंत, मंत्री, सार्थवाह, अंतःपर, श्रेष्ठी, सैनिक तथा हाथी, अश्व, रथ, ऊंट, खच्चर आदि के साथ प्रयाण किया। राजाओं ने उसका शस्त्र, वस्त्र, रत्न, अश्व, हाथी, रथ आदि भेंट के रूप में । समर्पितकर सत्कार किया। पर्वत, गाँव, नगर, नदी, उद्यान के सरोवरों में क्रीडा करता हुआ, रम्य स्थानों पर जिनचैत्य बंधाता हुआ, जीर्णचैत्यों का उद्धार करता हुआ, साधुओं की पूजा करता हुआ, श्रावकों का बहुमान करता हुआ, हजारों वर्ष पर्यंत भरतक्षेत्र में पर्यटन किया। पुरुषोत्तम राजा के द्वारा आह्वान करने पर, कनकध्वज राजा अयोध्या नगरी में आया। उद्यान में विशाल चैत्य देखकर खुश हुआ। स्वर्ण, मोती, मणि तथा पुष्पमाला से जिनेश्वर भगवंत की पूजाकर स्तवना की। राजा ने बाहर निकलकर मधुर शब्दों में आगम का पठन कर रहे मुनियों को तथा बीच में वृक्ष के नीचे बैठे सूरिभगवंत को देखा। अतिहर्ष से उनके समीप में जाकर, जंगम तीर्थ सदृश गुरु को वंदनकर बैठ गया। तब सूरिभगवंत ने धर्मदेशना प्रारंभ की - भव्यप्राणियों! मनुष्य जाति आदि सामग्री प्राप्तकर, सर्व शक्ति से सदा धर्म में उद्यम करना चाहिए। मानवभव निष्फल न जाए वैसे धर्म में प्रयत्न करना चाहिए। इत्यादि गुरु ने देशना दी। ___मुनिपुंगव के द्वारा देशना देकर विराम पाने पर, कपिञ्जल नामक पुरोहित ने क्रोधपूर्वक उनसे कहा - सुख का मूल कारण धर्म है, इसलिए चतुर पुरुषों को धर्म का आचरण करना चाहिए। यह सब बातें अत्यंत पाखंडी मुंडित मस्तकवालों का एक नाटक है। संपूर्ण धर्म जीव के सद्भाव में होता है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से तथा आग्राह्यता के कारण जीव की संभावना दिखायी नही देती है। स्तंभ, घडा, कमल आदि के समान, जीव आँखों से देखा नही जा सकता है। बांसुरी, ढोल, वाद्य आदि के समान, जीव कानों से सुना नहीं जा सकता है। सुगंधीपदार्थ, धूल आदि के गंध के समान, वह नाक से ग्रहण नही किया जा सकता है। मधुर, आम्ल आदि रस के समान, उसे जीभ से चखा नहीं जा सकता है। शीत, उष्ण आदि स्पर्श के समान, उसका स्पर्श नही किया जा सकता है। पाँचों इंद्रियों से अगोचर होने के कारण, जीव नही है। यथार्थ में जीव विद्यमान नही है, किंतु मनुष्य, तिर्यंच के शरीर का जो व्यवहार है, वह पाँच भूतों का ही परिणाम है। कपिञ्जल की दलीलें सुनकर, गुरु ने कहा - भद्र! जीव की अविद्यमानता सिद्ध करनेवाला यह तेरा ज्ञान विद्यमान है अथवा अविद्यमान है? पाँच इंद्रियों से अगोचर होने से तथा अमूर्त्तत्व के कारण, वह ज्ञान अविद्यमान कहा जा सकता है। ज्ञान के अविद्यमान सिद्ध हो जाने से, प्रतिषेध के अभाव से जीव सिद्ध ही है। 112
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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