SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शून्य नगर को देखकर, कुतूहलवश हम दोनों ने अंदर प्रवेश किया। वह नगर सुंदर दूकान, देव महल के समान ऊँचे कोट तथा अनेक जगह पर परबों से व्याप्त था। तीक्ष्ण तलवार हाथ में रखकर, रात्रि के समय हम दोनों उसी नगर में सो गये। कुछ समय पश्चात् राजकुमार जाग गया। तब एक शेर राजकुमार के समीप आकर, मनुष्य वाणी में कहने लगा - राजपुत्र! मैं भूखा हूँ। मुझ पर कृपा करो। नजदीक में सो रहे इस मनुष्य को मुझे दे दो। राजकुमारने कहा - शरणागत को मैं छोड नही सकता हूँ। इसलिए तुम मेरा ही भक्षण कर लो। कहा भी गया है कि - सुभटों से शरणागत, सिंह से केसर, सती से उत्तमता तथा सर्प से चूडामणि। इनके जीवित रहते हुए ग्रहण नहीं की जा सकती है। इस प्रकार के वचन से, राजकुमार के निश्चय को जानकर शेर ने कहा - भद्र! मैं तेरे सत्त्व से प्रसन्न हूँ। कहो, मैं तुम्हारा कौन-सा इष्ट कर सकता हूँ? तुम कौन हो? इस प्रकार राजपुत्र के पूछने पर उसने कहा - मैं इस देश का नायक देव हूँ। रत्नसागर ने पूछा - आपके रहते हुए भी यह देश उज्जड क्यों है? मुझे यह आश्चर्य है। तब देव ने भी अपने वास्तविक रूप को प्रकट कर, राजकुमार से इस प्रकार सत्य हकीकत कहने लगा - गंधार नगर में रविचंद्र राजा राज्य करता था। उसे रतिचंद्र-कीर्तिचंद्र नामक दो पुत्र थे। रविचंद्र राजा ने रतिचंद्र को राज्यपद तथा कीर्तिचंद्र को युवराजपद का वितरण कर स्वयं ने दीक्षा ग्रहण की। रतिचंद्र ने गायन आदि रस के परवशता से, सभी राजकार्यों की देखभाल के लिए कीर्तिचंद्र को नियुक्त किया। प्रचुर लोभाभिभूत कीर्तिचंद्र ने संपूर्ण राज्य को स्वाधीन कर लिया। रतिचंद्र को बंदी बनाकर, तुरंत ही वध का आदेश दिया। तब दीनतापूर्वक रतिचंद्र ने कहा - भाई! कुंदफूल, चंद्र तथा शंख के समान हमारे निर्मल कुल पर तुझे मसि का दाग लगाने की योग्यता नही है। यदि तुझे राज्य की लालसा है तो यह संपूर्ण राज्य, मैंने तुझे दे दिया है। यदि तुझे विश्वास न होता हो, तो भी छोड दो जिससे मैं पिता के मार्ग का अनुसरण कर सकूँ। इतना कहने पर भी जब कीर्तिचंद्र ने उसकी बात नही मानी, तब रतिचंद्र ने कहा - ऐसा कृत्य कर तेरा अपयश न हो, इसलिए तुम चिता रचाओ, मैं अग्नि में प्रवेश करूँगा। कीर्तिचंद्र के द्वारा वैसा करने पर, पत्नी सहित राजा ने अग्नि में प्रवेश कर लिया। लोभी आत्माएँ कृत्याकृत्य की गणना नहीं करती हैं। वह मैं रतिचंद्र मरकर, भूतरमण यक्ष हुआ हूँ। अंत समय में प्राणी की जैसी मति होती है, वैसी ही उसकी गति होती है। निष्कारण शत्रु ऐसे कीर्तिचंद्र का स्मरणकर मैं क्रोधित बना। सभी लोगों को मैंने अलग-अलग देशों में छोड़ दिया है। वह कीर्तिचन्द्र भी यहाँ से भाग गया है। मैं अकेला ही इस उज्जड़ देश में रह रहा हूँ। यहाँ पर तुम दोनों को देखकर, शेर का 103
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy