SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वस्त्र धारण किये हुए धूलि से धूसरित तथा लोगों के द्वारा निंदित किये जाते एक जुगारी को देखा। करुणावान् उन दोनों ने पूछा - इसे इतना क्यों सता रहे हो? तब किसी व्यक्ति ने कहा - इस नगरी में करोड़पति वरुण श्रेष्ठी निवास करता है। उस श्रेष्ठी का यह पुत्र है। पिता ने इसे जुगार के व्यसन के कारण घर से बाहर निकाल दिया था। फिर भी इस दौर्भागी ने जुगार खेलना नही छोड़ा। आज यह लाख मुद्राएँ हारकर पलायन कर रहा था। हमने इसे बलजबरी से पकड़ रखा है। लाख मुद्रा प्राप्त किये बिना, हम इसे छोड़नेवालें नहीं है। आप इस विषय में दखल-अंदाजी न करे। लाख स्वर्ण मुद्राएँ देकर, हरिवेग-पभोत्तर ने श्रेष्ठी पुत्र को छुड़ा लिया। कर्म की विषम चेष्टा के बारे में, विचार करते हुए, वे दोनों महल चले गये। कालक्रम से उन दोनों के पुत्र राज्यभार वहन करने में समर्थ बन गये। पुत्रों को राज्यभार सौंपकर, शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण करने का विचार करने लगे। उतने में ही रत्नाकरमुनि उद्यान में पधारे। दोनों ने मुनिभगवंत को वंदन किया। मुनि की देशना सुनकर, वैराग्य के चढ़ते परिणाम से पुत्र को राज्यभार सौंपकर प्रशस्त दिन में संवेग रसवाले उन दोनों ने दीक्षा ग्रहण की। अग्यारह अंग पढ़कर, वे दोनों तप, क्रियाओं में कुशल बने। अंत में आयुष्य पूर्णकर ग्रैवेयक में सत्ताईस सागरोपम प्रमाण आयुष्यवाले देव बने। इस प्रकार पं.श्रीसत्यराजगणि द्वारा विरचित श्रीपृथ्वीचंद्रमहाराजर्षि चरित्र में पभोत्तर-हरिवेग महामुनि चरित्र रूपी सप्तम भव वर्णन संपूर्ण हुआ। अष्टम भव पांडु नामक देश में पांडु नगर है। वहाँ पर श्रीबल राजा राज्य करता था। उसका छोटा भाई शतबल युवराज था। वे दोनों राम-लक्ष्मण के समान आपस में घनिष्ट प्रीतिवाले सहोदर थे। निपुण ऐसे वे दोनों पिता के द्वारा अर्पित सुविस्तृत साम्राज्य का सम्यक् प्रकार से परिपालन करते थे। श्रीबल राजा की सुलक्ष्मणा तथा शतबल की लक्ष्मणा नामक पत्नी थी। पभोत्तर देव स्वर्ग से च्यवकर, सुलक्ष्मणा की कुक्षि में पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। गंगा के समीप में रहे हए पर्वत को स्वप्न में देखने से, उसका गिरिसुंदर नाम रखा गया। हरिवेग देव भी लक्ष्मणा की कुक्षि में पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। स्वप्न में रत्न के समूह को देखने से उसका रत्नसार नाम रखा गया। गिरिसुंदर तथा रत्नसार दोनों आपस में प्रेम की शृंखला से बंधे हुए इकट्टे खेलते थे। एकदिन राजसभा में विराजमान बलवान् ऐसे श्रीबल राजा से, दुःख से पीडित नागरिक लोगों ने इस प्रकार विज्ञप्ति की - आप जैसा राजा होने पर भी, हमें बड़े संकट का सामना करना पड़ रहा है। अपने घर के आंगन में बैठी हुई कमला नामक महिमा का किसी ने बलजबरी से अपहरण कर लिया है। यहाँ पर 99
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy