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________________ आप विचार करें - जैसे पार्वती में रत तथा कामदेव के शत्रु, शिव को आप पूजनीय मानते हो, वैसे ही चूहे को खानेवाली और चूहे की हिंसा करनेवाली इस बिल्ली को श्रेष्ठ क्यों नही मान सकते हो? इस प्रकार की सत्यवाणी से, हरिवेग ने ब्राह्मणों को शीघ्र ही निरुत्तर बना दिया। ___ तब पभोत्तर सोचने लगा - यह कोई महान् पुरुष है। इसलिए आदर सहित मैं इनसे देवता का स्वरूप पूछता हूँ। पभोत्तर के पूछने पर हरिवेग ने भी सर्वज्ञ भाषित धर्म के बारे में कहा। पुनः हरिवेग ने पभोत्तर को उद्देशकर कहा - क्या पूर्वभव के ग्रैवेयक की लक्ष्मी को भूल गये हो? उस समय पभोत्तर को जातिस्मरण ज्ञान हुआ और हरिवेग से कहने लगा - अहो! तेरे ज्ञान की निर्मलता अहो! तेरा उपकारपन, अहो! तेरा सद्धर्म में पक्षपात, अहो! तुम कैसे श्रेष्ठ हो? अहो! तेरी कृपापरायणता, अहो! तेरा उत्तम वात्सल्य। तुम मुक्तावली का जीव हो और विद्याधर बने हो। मुझे बोध देने के लिए ही तुम यहाँ आये हो। अब अपने नकली रूप को छोड़कर, वास्तविक रूप प्रकट करो। हरिवेग के द्वारा वैसा करने पर, उन दोनों ने परस्पर गाढ़ आलिंगन किया। राजा भी इस वृत्तांत को जानकर, नागरिक लोग तथा परिवार सहित श्रीजिनधर्म में अत्यंत निष्ठावान् बना। सत्संग से किसको लाभ नही होता है? इसीबीच वनपालक ने आकर राजा से विज्ञप्ति की - स्वामी! केवलीभगवंत के आगमन से आपको बधाई दी जाती है। पभोत्तर, हरिवेग आदि को साथ लेकर, राजा वंदन करने के लिए गया। राजा ने आनंदपूर्वक केवली की देशना सुनी। राजा प्रतिबोधित हुआ और राज्य छोड़कर दीक्षा ग्रहण की। दुष्कर तप करते हुए, कर्म ईंधन को जलाकर परमपद प्राप्त किया। पश्चात् पभोत्तर ने श्रावक धर्म का अंगीकार किया। हरिवेग ने उसका राज्यपद पर अभिषेक किया और पभोत्तर राजा अनेक राज्यों का पालन करने लगा। कुछ समय पश्चात् हरिवेग, पभोत्तर को अपने नगर में ले गया और कहने लगा -मित्र! मेरी निर्दोष विद्या तथा विद्याधर के ऐश्वर्य को ग्रहण करो। पभोत्तर ने कहा - भाई! तुम मेरे दूसरे शरीर समान हो। इसलिए जिसके तुम राजा हो, उसका मैं भी राजा हूँ। तथा धर्म के प्रदान से, जो कुछ भी देने योग्य है, वह सब दे दिया है। क्या इससे बढ़कर भी श्रेष्ठ दान हो सकता है? जब तक पुत्र का जन्म न हो, तबतक हम दोनों राज्य का परिपालन करेंगें। पश्चात् पुत्र को राज्य की धुरा सौंपकर हम दोनों दीक्षा ग्रहण करेंगे। इस प्रकार दोनों ने परस्पर विचारणा की। शाश्वत जिनचैत्यों की यात्राकर, वापिस गज्जणपुर लौट आएँ। ___ एकदिन वे दोनों राजा आदरपूर्वक जिनचैत्यों को नमस्कार कर लौट रहे थे, उतने में ही लकडी, मुष्टि के प्रहार से आँखों में पीडावाला, बिखरे केश, फटे 98
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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