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________________ धन्य-चरित्र/90 पुरुष को खड़ा हुआ देखकर उसने जाना कि निश्चय ही रूपसेन आ गया है। यह मानकर वहीं रहते हुए उसने सुनन्दा को बताने के लिए कहा-"तुम्हारा प्राणप्रिय आ गया है।" उसने भी हर्षित होते हुए कहा-"घर के अन्दर ले जाओ।" तब प्रिय सखी ने कहा-"क्या तुम आ गये?" धूर्त ने कहा-"हाँ!" प्रिय सखी ने रूपसेन के भ्रम से कहा-"आइए, पूज्यपाद! इस घर को अलंकृत कीजिए। अपने आगमन से हमारी स्वामिनी के मनोरथ को पूर्ण कीजिए।" इस प्रकार के शिष्टाचार-युक्त वचन को सुनकर धूर्त ने जाना-"मैंने जो अनुमान लगाया, वह सत्य साबित होता है। अतः सुखपूर्वक ऊपर जाता हूँ।" इस प्रकार विचार करके निसरनी के मार्ग से चढ़ते हुए जैसे ही गवाक्ष के अन्दर पाँव रखा, वैसे ही महोत्सव के लिए उपवन में स्थित रानी ने पुत्री के गाढ़ अनुराग से रंजित होते हुए अपने सखी-वृन्द को आज्ञा दी कि तुम लोग राज-सैनिकों को लेकर राजमंदिर जाओ। जाकर मेरी प्राणों से भी प्रिय सुनन्दा के कुशल आदि समाचार विशद रीति से ज्ञात करो। सुख प्रश्न पूछो। उसके बाद अमुक मंजूषा में स्थित अमूक पूजा का द्रव्य सावधानी से निकालकर पुनः पुत्री की कुशलता लेकर सैनिकों के साथ चली आना।" इस प्रकार रानी के द्वारा प्रेषित सखी-वृन्द को सैनिकों के साथ उसी समय राजमंदिर में प्रवेश करते हुए दूर से ही देखकर-"हाय! यह क्या हुआ? यह अन्तराय कर्म कहाँ से उदय में आ गया? रूपसेन का आगमन कहीं ये लोग न जान लें।" यह विचार कर उसकी प्रिय सखी ने हाथ से दीपक बुझा दिया और धूर्त को हाथ से पकड़कर अंधेरे में ही सुनन्दा के पलंग पर छोड़कर "कुछ भी बात मत करना' ऐसा कहकर प्रिय सखी प्रवेश करती हुई सखी वृन्द के सम्मुख चली गयी। उन्होंने भी पूछा-सुनन्दा कहाँ है? उसकी हालत कैसे है? हमें बताओ। सुनन्दा कहाँ सोयी हुई है? हमें बताओ! और हाँ! आज राजमहल में अंधकार क्यों दिखायी दे रहा है। इस प्रकार के उनके शब्द सुनकर प्रिय सखी ने उनसे कहा-"हे बहिनों! सुनन्दा को सिर के दर्द से अत्यन्त पीड़ा हुई। ऐसी पीड़ा तो शत्रु को भी न हो। उसे जो दर्द हुआ, उसे तो देखा भी नहीं जा सकता। उसने बिस्तर पर तड़पते हुए कहा-'मैं इस दीप के परिताप को सहन नहीं कर पा रही हूँ। अतः
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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