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________________ धन्य-चरित्र/82 पूर्वमुक्त वेश्या में पुरुष ही गमन करते हैं तथा अपनी विनयादि गुणों से युक्त पुत्रों को पैदा करनेवाली, रूप-यौवन युक्त, पतिव्रता, धर्म-परायणा अपनी पत्नी का त्याग करके इस भव में राज-धर्म तथा परभव में चोरी के पाप से युक्त परदारा का पुरुष ही सेवन करते हैं। शीघ्र ही प्राण व्यय करनेवाला, दुर्गति मार्ग को ले जानेवाला, सभी का अप्रिय, मार्ग-गृह-ग्राम आदि को लूटने का चौर्य कर्म पुरुष ही करते हैं। निरपराधी तृण-जल-वायु विहित प्राण-वृत्तिवाले वनवासी जीवों की व्यर्थ ही हिंसा पुरुष ही करते हैं। परदेश जाकर, कष्ट-सहनपूर्वक पर-सेवा करके, अति संकोच से प्राणवृत्ति करके, प्राण-व्यय का डर नहीं रखते हुए समुद्र को उल्लंघकर द्वीप के अन्दर बहुत से क्लेशों द्वारा धनार्जन करके, अपने घर में गमन, स्वकीय कुटुम्ब के पोषण, मिलन, विवाहादि-करण आदि मनोरथों से भरे हुए पथिकों को विविध जाति-वेश-भाषा-विनिमय-मधुर भाषण आदि दम्भ के विलास से, विश्वास की फांसी रूपी अधिकरणों से उनको मारकर उनका सर्वस्व पुरुष ही हरण करते हैं। विषय-लुब्धक पुरुष कितने ही सैकड़ों-हजारों की संख्या में स्त्रियों का परिग्रह करते हैं, पर कुल-प्रसूता तो अपने कर्म के उदय से प्राप्त पति की सेवा से ही घर का निर्वाह करती है। अपनी कुल-मर्यादा को नहीं छोड़ती। इसलिए हे प्रियसखी! पुरुषों के अधीन स्त्रियों का जीवन धिक्कार-युक्त ही समझना चाहिए। अतः मैं पाणिग्रहण के संकट में नहीं गिरूँगी। कल ही मैंने माता-पिता को बातें करते हुए सुना कि अब सुनन्दा का विवाह कर देना चाहिए। अतः तुम माता के पास जाकर निवेदन करो कि अभी सुनन्दा विवाह नहीं करेगी। शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।" यह सुनकर सखी ने कहा-“स्वामिनी! तुम तो बालभाव में हो, पर यौवन वय प्राप्त होने पर स्त्रियों के लिए पुरुष ही जीवन है। यौवन में पति से विहीन स्त्री धूलि से भी निस्सार जाननी चाहिए। इस जगत में दो ही सुख है, उनमें एक पौदगलिक है और दूसरा आत्मिक है। पौदगलिक सुख भी दो प्रकार का है-कारण सुख व स्पर्श सुख । इसमें कारण तो धन आदि है एवं स्पर्श में खान-पान आदि है। दोनों ही पौद्गलिक सुखों का रहस्य स्त्रियों के लिए पुरुष एवं पुरुषों के लिए स्त्री ही है, क्योंकि धन – धान्यादि समग्र इन्द्रिय सुख से भरे घर में सब कुछ होने पर भी एकमात्र पति के वियोग में विधवा-स्त्री अग्नि में प्रवेश करती है। अतः जाना जाता है कि संसार में अग्नि से ज्यादा दुःसह्य विरह है। दूसरे प्रकार के सुख का हार्द तो समता ही है। उसके बिना तप, जप,
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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