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________________ धन्य-चरित्र/81 है, क्योंकि प्रिया के बिना घर-घर नहीं होता। लोगों द्वारा बिना प्रिया का पुरुष पथिक कहा जाता है। प्रिया ही घर की शोभा है। उदर की पूर्ति करने मात्र उपकार से स्त्री यावज्जीवन पुरुष की आज्ञा से प्रवर्तित होती है। ___ प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर जल भरकर लाती है। गृह-पूजन, प्रमार्जन, कचरा साफ करना, घर में रहे हुए गाय आदि पशु द्वारा कृत गोबर की व्यवस्थापना आदि कर्मकर क्रिया करती है। फिर चावल आदि धान्य को चुगना, खांडना, पीसना, दालों का चूर्ण बनाना आदि क्रियाएँ करती है। फिर इंधन-विधि द्वारा रसोई बनाती हैं। पति आदि को भोजन कराती है। उसके बाद स्वयं भोजन करती है। फिर रसोई के पात्र साफ करती है। घर में आये हुए मनुष्यों का आदर-सत्कार करती है। सास-ननद आदि की यथोचित विनय-प्रतिपत्ति करती है। पति के बड़े भाई आदि की लज्जा करती है। मंद गति, मंद भाषण, मंद हँसना आदि के द्वारा पति के घर की शोभा बढ़ाती है। घर में आये हुए मुनियों को प्रतिलाभित करके पुण्य की वृद्धि करती है। दीन-हीन प्राणियों और सम्पूर्ण भिक्षुओं को अनुकम्पा दान देकर पति के यश व पुण्य को पोषित करती है। पुनः दूसरी बेला में रसोई आदि बनाते हुए उसका दिन समाप्त हो जाता है। इस प्रकार वह दिन भर घर के काम में उलझी रहती है। फिर पति की प्रसन्नता के लिए स्नान-मज्जन-शृंगार आदि करती है। संध्या के समय दीप जलाकर घर को उज्ज्वल करती है। फिर शय्या-समारण-रचना आदि करती है। जब तक पति का आगमन नहीं होता, तब तक नहीं सोती। भोग देती है, कुल-वृद्धि के लिए संतान देती हैं। प्रातः पति के जागने से पहले जाग जाती है। उठकर पुनः गृह – कार्य में प्रवृत्त हो जाती है। अति दुःख की अवस्था में माता-पिता-भाई -बहन आदि भागकर दूर चले जाते हैं, पर पत्नी दूर नहीं जाती। वीर पुरुषों द्वारा नारी का त्याग बहुत बार सुना जाता है, पर कुलवती नारी द्वारा कभी भी पति-त्याग नहीं सुना गया। और भी, जो भी इस जगत में निन्दनीय, गर्हणीय, क्रूर कर्म हैं, वे सभी पुरुष द्वारा ही किये जाते हैं। जैसे-समस्त व्यसनों का बीज रूप जुआ पुरुषों द्वारा ही खेला जाता है। शिकार के द्वारा वनस्थ पशुओं का घातक पुरुष ही हैं। अति उग्र पापकारी कन्द-मूल, मांस, आदि अभक्ष्य के भक्षण में आसक्त पुरुष ही हैं, क्योंकि पुरुषों द्वारा लाया हुआ ही स्त्रियाँ पकाती है। चेतना को उग्र करनेवाला, समस्त सद्बुद्धि का निवारक, अति दुर्लभता से प्राप्त नरभव का हारक रूपी मदिरा-पान पुरुष ही करता है। जाति-कुल-धर्म-मर्यादा की अवगणना करके अनेक वेश्यागामियों द्वारा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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