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________________ धन्य-चरित्र/60 विभक्त करके देना चाहिए, क्योंकि राज- देय अथवा राज - लभ्य को सभी द्वारा मिलकर ही करना चहिए । पुनः एक के द्वारा निर्वाह होना शक्य नहीं है। अतः कल सभी व्यापारियों को बुलाकर विभाग करके यथा - योग्य ग्रहण करेंगे। इस प्रकार मंत्रणा करके सभी अपने-अपने घर चले गये । प्रभात के समय पुनः इकट्ठा होने पर किसी ने कहा "धनसार श्रेष्ठी के यहाँ से कोई नहीं आया, अतः उन्हें भी बुलाना चाहिए ।" तब उन्हें बुलाने के लिए एक आदमी को उनके घर भेजा गया । धनसार ने वृत्तान्त सुनकर अपने तीनों बड़े पुत्रों को वहाँ जाने का आदेश दिया। तब अन्दर से मात्सर्य-भाव से युक्त उन पुत्रों ने कहा - " हे तात! हमें क्यों भेजते हैं? अपने दक्ष पुत्र को क्यों नहीं भेजते ? इसकी दक्षता भी ज्ञात हो जायेगी कि इसके वस्तु - ग्रहण का कौशल किस प्रकार का है? अतः इसी को भेजकर लाभ ग्रहण कीजिए।" इस प्रकार की पुत्रों की उक्तियाँ सुनकर धनसार ने धन्य को वहाँ भेज दिया । - पवित्रता की निधि धन्य भी पिता के आदेश को पाकर चारों ओर से शुभ शकुनों से प्रेरित होकर उत्साहित होता हुआ वहाँ आया। फिर सभी बड़े-बड़े सेठों ने अपने-अपने वाणिज्य के अनुकूल वस्तु-क्रयाणकों को विभक्त करके ले लिया। परीक्षक शिरोमणि धन्य तो वहाँ खड़ा खड़ा सभी क्रयाणकों को दृष्टि पथ पर अवतीर्ण करके अपनी बुद्धि से परीक्षा करके मौन धारण करके रहा । तब तक तो क्षार- मिट्टी से भरे कलशों के विभाजन का अवसर आया । पर उसे ग्रहण करने के लिए किसी ने भी हाथ नहीं फैलाये । तब सभी ने मिलकर विचार किया—“इस बालक धन्यकुमार को ही ठगना चाहिए, क्योंकि यह बालक होने से सीधा - उल्टा कुछ भी नहीं जानेगा । " अतः बात बनाकर बालक के योग्य वस्तु बालक को ही दी जानी चाहिए। फिर उन्होंने कहा - "हे धन्य ! तुम प्रथम वय में प्रथम व्यापार के लिए आये हो। अतः मंगल रूप इस मिट्टी को ग्रहण करो। शुरूआत में थोड़ा प्रयत्न तथा थोड़ा व्ययवाला कार्य करना चाहिए। बाद में बहु- बहुतर कार्य किया जाना चाहिए। तभी अधिक-अधिकतर बुद्धि संभव होती है और मति - विभ्रम नहीं होता । कहा भी है अल्पारम्भा क्षेमकराः भवन्ति । अर्थात् अल्पारम्भी कार्य कल्याणकारी होते हैं। और भी, इसका राजदेय द्रव्य भी स्वल्प ही होगा। प्राप्त की हुई वस्तु के कर-ग्रहण में राजा जल्दबाज होता है। इसलिए स्वल्प - मूल्यवाली वस्तु का
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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