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________________ धन्य-चरित्र/59 चतुर्थ पल्लव धन्यकुमार के तीनों ही सहोदरों ने भाग्यशाली धन्य के साथ तात के मन की अनुवृत्ति से और लोक-लाज के भय से कितने ही दिनों तक भातृ-भाव दिखाया। परस्पर शिष्टाचारपूर्वक गृह कार्य का निर्वाह करते रहे। इधर प्रतिष्ठान पुर के स्वामी के राज्य के एक देश में समुद्र के समीपवर्ती बन्दरगाह में किसी समय हवा से अत्यधिक प्रेरित होता हुआ मृत स्वामी से युक्त एक विशाल जहाज आया। उस जहाज में रहे हुए लोगों ने प्रतिष्ठानपुर के राजा को बताया-"स्वामी! इस जहाज का स्वामी तो मार्ग में ही पंचत्व को प्राप्त हो गया। उसका कोई परिजन भी नही है। अतः बिना स्वामी का धन राजा का होता है। इसलिए यह धन आप ग्रहण कीजिए। जो हमारा है, वह पोत में रहे हुए मनुष्यों द्वारा निर्णय करके हमको दे दीजिए।" तब राजा ने उनके कथनानुसार सब निर्णय करके जहाज में रहे हुए व्यापारियों का वस्त्रादि से सत्कार करके अपने-अपने सम्बन्धादि का धन देकर रवाना कर दिया। तब प्रवास का भाता लेकर वे सभी अपने-अपने स्थान पर गये। फिर नाविकों द्वारा सागर-प्रवाह के स्रोत से जहाज को छोटे-बच्चों की तरह धीरे-धीरे खींचकर नगर के अन्दर लाया गया। तब राजा की आज्ञा से जहाज में रहे हुए क्रयाणक-माल को नाविकों ने नीचे उतारा। दूसरे जहाज के भी उपकरण निकालकर भूमि पर रखे गये। पुनः उसी जहाज के निचले भाग से क्षार मिट्टी से भरे हुए अनेकों की संख्या में कलश निकले। उसे देखकर राजा तथा प्रमुखजनों ने हृदय में अवधारण किया कि निश्चय ही इस पोतपति के नगर में लवण दुष्प्राप्य दिखायी देता है। इसी कारण से किसी बन्दरगाह से क्षार-मिट्टी से भरे हुए कलश ग्रहण किये होंगे। ऐसी संभावना लगती हैं। फिर राजा ने प्रतिष्ठानपुर नगर में रहनेवाले व्यापारियों को बुलाकर उनको सारा माल दिखाकर कहा-“हे व्यापारियों! यह जहाज में रहा हुआ माल आप सभी व्यापारी-जन प्रसिद्ध मूल्य देकर ग्रहण कर लीजिए, जिससे किसी का भी द्रव्य टूटे नहीं। लाभ तो अपने-अपने भाग्य-अनुमान के योग्य प्राप्त कीजिए। उसमें हमारा लाभ का भाग नहीं होगा। राजा के कथन को सुनकर उन व्यापारियों ने परस्पर मंत्रणा की कि नगर में रहे हुए सभी व्यापारियों को बुलाकर राजा द्वारा दिये गये माल को
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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