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________________ धन्य-चरित्र/39 में भी कहा गया है अपि रत्नाकरान्तःस्थैर्भाग्योन्मानेन लभ्यते। पिबत्यौर्वोऽम्बुधेरम्बु-ब्राह्मीवलय-मध्यगम्।। रत्नाकर के अन्दर रहा हुआ भी भाग्य प्रमाण ही प्राप्त करता है। जैसे कि ब्राह्मी-वलय के मध्य रहा हुआ भी बड़वानल समुद्र के पानी को ही पीता है। हे पुत्रों! अति उन्नत व्यक्तियों के साथ असूया अपने विनाश के लिए ही होती है। मेघों की असूया से क्या अष्टापद जीव का अंग भंग नहीं होता? जो अन्यों का उत्कर्ष देखकर व सुनकर ईर्ष्या करते हैं, वे भाग्य के मारे पुरुष पंकप्रिय की तरह दुःख के भाजन होते हैं। जैसे ईर्ष्या के ऊपर पंकप्रिय की कथा ___ जंबूद्वीप के दक्षिण भरत में शत्रुओं द्वारा युद्ध के अयोग्य अयोध्या नामक नगरी थी। वहाँ इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुआ जितारि नामक राजा, श्री रामचन्द्र जी के समान नीतिमार्ग द्वारा राज्य का प्रतिपालन करता था। ___ वहाँ पर पंकप्रिय नामक कुम्भकार रहता था, जो वक्तृत्व-कुशलों का शिरोमणि, लक्ष्मीपति, विनीत एवं खर प्रकृतिवाला था। वह ईर्ष्यालु होने से अन्य के गुणों को सुनकर सहन नहीं कर पाता था। ईर्ष्या की अधिकता से उसके सभी गुण दूषित हो जाते थे। जैसे कि समुद्र क्षारता के कारण तथा चन्द्रमा कलंक के कारण दूषित हो जाता है। यदि कोई भी किसी भी उन्नति की बात करता, तो उसकी बात सुनकर ईर्ष्या पैदा होती तथा उस ईर्ष्या से दुर्निवारणीय शिर की व्यथा उत्पन्न हो जाती थी। कभी किसी मनुष्य को स्वकीय या परकीय गुणों को बोलता हुआ देखकर उसका निषेध करने में अशक्त होने से अपने सिर को ईर्ष्या से कूटने लगता था। लोग गरीब होते हुए भी अपने घर में हुए विवाद आदि उत्सवों की प्रशंसा करते थे। आत्म-उत्कर्ष के लिए दुगुना-तिगुना खर्च बढ़ाकर बताते थे। मिथ्या बोलते हुए थोड़ा व्यय करके ज्यादा बताते थे, क्योंकि अनधिगतागमरहस्यानां सर्वसंसारिणामियमनादिका जगत्स्थिती। आगम रहस्य को नहीं जाननेवाले सभी सांसारिक जीवों की अनादिकाल से यही जगत्स्थिति है। सभी अपने उत्कर्ष को प्रबल रूप से बोलते हैं, पर जड़ आशयवाले इस दोष से विरत नहीं होते। इस प्रकार क्रोध से सिर कूटते हुए उसके सिर में घाव हो गये। ऐसा लगता था, मानो ईर्ष्या रूपी विष-वल्लरी से अरुण पल्लव की कतार हो गयी हो। कहा भी है
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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