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________________ धन्य-चरित्र/38 ज्यादा धन व्यय करके खरीदा हुआ यह कैसे दिया जा सकता है? पर स्वामी के वाक्य का निरर्थक उल्लंघन भी कैसे किया जा सकता है? अतः मेरा जितना धन लगा है, उतना देकर इसे ग्रहण कर लीजिए। आपके कार्य में अधिक मूल्य करना उचित नहीं है। अभी इसकी खरीद में एक लाख से कुछ अधिक द्रव्य लगा है। अतः लक्ष–मात्र धन देकर सुखपूर्वक इसे अपनी क्रीड़ा का पात्र बनाइए।" राजपुत्र ने भी कुमार द्वारा कहा गया मूल्य देकर मेंढ़ा ग्रहण कर लिया। ग्राहक की आतुरता होने पर व्यापारी मूल्य बढ़ाता जाता है। ग्राहक भी अपनी इच्छा की आतुरता की पीड़ा के वश में ग्राह्य वस्तु की अपेक्षा करता है, पर मूल्य अधिक होने पर भी माल का त्याग नहीं करता है। धन्यकुमार भी दो लाख के द्रव्य के लाभ के साथ घर गया। पहले से भी दुगुना लाभ देखकर कीर्ति और प्रशस्ति में वृद्धि हुई। सभी स्वजन परम संतोष का प्राप्त हुए, क्योंकि सुबह के सूर्य की तरह जगत में उगता हुआ व्यक्ति ही वंदित होता है। तब बहुत प्रकार से स्वजनों तथा परिजनों द्वारा की गयी धन्यकुमार की प्रशंसा सुनकर धन्य के तीनों अग्रजों के मुख स्याह-वर्णी हो गये। तब ईर्ष्यावन्त उन तीनों को पिता ने हितकारी वचन कहे-“हे पुत्रों! सौजन्य सम्पदा का बीज है। दौर्जन्य आपदा का स्थान है। अतः नय-निपुण जनों द्वारा सज्जनता का ही आश्रय लेना चाहिए। मूढ़ व्यक्ति अन्य की उन्नति में द्वेष करता हुआ लोगों में दुर्जनता-वाद को प्राप्त होता है। चन्द्र का दोहन करनेवाले राहू को क्या बुधजन क्रूर नहीं कहते? कर्म की कर्तृत्व शक्तिवाले विश्व में सभी का वाँछित नहीं होता। सर्वत्र भाग्य रूपी कर्म ही फलित होता है। फिर अन्य विडम्बना से क्या? कहा भी है मिलिते लोके लक्षोऽपि, येन लभ्यं लभेत सः। शरीरावयवाः सर्वे, भूष्यन्ते किम् चिबुकं बिना।। अर्थात् लाखों के इकट्टे हो जाने पर भी जिसको जो लभ्य है, वह वही प्राप्त करता है। शरीर के सभी अवयव चिबुक के बिना शोभित होते हैं भला? भाग्य के बिना श्रेष्ठ वस्तु बड़ों को भी प्राप्त नहीं होती। जैसे विष्णु के द्वारा समुद्र-मंथन किये जाने पर उन्हें चौदह रत्न प्राप्त हुए, पर महेश्वर के बड़े होने पर भी उन्हें कालकूट विषय ही प्राप्त हुआ। अतः भाग्य के बिना शुभ अन्वय होते हुए भी सौभाग्य नहीं होता। कीचड़ अमृत से पैदा होने पर भी जब पाँव में लगता है, तो उसे झाड़कर दूर करके उसका त्याग कर दिया जाता है। लोक
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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