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________________ धन्य-चरित्र/374 इस सभा में भट, धीर-वीर तथा ( परोपकार करने में ) हजारों बार रसिक हैं। अतः इनके मध्य जो कोई भी कार्य साधेगा, तो मेरी ही महत्ता बढ़ेगी।" __वह विचार कर अपने हाथ में बीड़ा उठाकर समस्त सभा के सामने कहा-"इस सभा में कोई माई का लाल है, जो इसके स्वर्ण-पुरुष को वापस लाकर मेरी, अपनी और इस सभा की लाज रख सके? यह कार्य करने का बीड़ा कौन उठा रहा है?" राजा ने इस प्रकार कहते हुए सभी को बीड़ा दिखाया, पर दुःसाध्य कार्य होने से किसी ने भी हाथ नहीं बढ़ाया, तब चन्द्रधवल कुमार ने विचार किया-"स्वर्ण-पुरुष तो मेरे पास है। पिताश्री के बीड़े को कोई भी ग्रहण नहीं कर रहा है। अतः मुझे ही यह ग्रहण कर लेना युक्त है, जिससे पिताश्री की महिमा का नाश न हो और इसका दुःख भी नष्ट हो जाये। पिता के महत्त्व को अखण्डित रखने में मेरे ही महत्त्व की वृद्धि होगी और पिता की अपकीर्त्ति दूर करने से सुपुत्र के रूप में मेरी ख्याति भी होगी।" ऐसा विचार कर कुमार ने प्रमाणता-पूर्वक बीड़े को ग्रहण किया। यह देखकर राजा और लोग चमत्कृत होते हुए परस्पर विचार करने लगे-"यह देवादि कृत छल की अज्ञात घटना जानकर, स्थान के सद्भाव का निर्णय नहीं होने से किस उपाय के द्वारा अथवा किसकी सहायता से स्वर्ण नर को वापस लेकर आयेगा? कैसे अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करेगा?" इस प्रकार महा आश्चर्यकारी होने से और कार्य के असाध्य होने से अनेक प्रकार से वे विचार करने लगे। __ उधर कुमार बीड़ा ग्रहण करके धर्मदत्त के साथ सभा से बाहर निकल गया। उसने मन में विचार किया कि अगर इसे मैं अभी स्वर्ण-पुरुष दे देता हूँ, तो इसके मन में कुछ भी शंका उत्पन्न हो जायेगी और कार्य की दुःसाध्यता भी नहीं रहेगी। बल्कि विचित्र बातें करनेवाले लोग असद्भूत अर्थ को प्रकट करके अभ्याख्यान ही देंगे। यह भी मेरे उपकार की गम्भीरता पर श्रद्धा नहीं करेगा। इससे महायश की प्राप्ति के स्थान पर अल्पयश की ही प्राप्ति होगी। जैसा कार्य होता है, उसके अनुरूप ही आडम्बर भी करना चाहिए। अतः इस कार्य में देर करना ही उचित है। ऐसा विचार कर धर्मदत्त से कहा-"तुमने स्वर्ण पुरुष किस स्थान पर बनाया था? वह स्थान दिखाओ। तब धर्मदत्त ने वह स्थान तथा सारी घटना बतायी।" __राजकुमार भी सिर हिलाते हुए धर्मदत्त को कहने लगा-“हे भद्र! यह तो प्रबल शक्तिमान किसी देव, दानव, अथवा विद्याधर के द्वारा तुम्हारा स्वर्ण-पुरुष ग्रहण किया गया है, सामान्य व्यक्ति के द्वारा नहीं-ऐसा जान पड़ता है। अतः अगर यहाँ रात्रि में रुका जाये, तो किसी प्रकार से उसके स्वरूप को जाना जा सकता है?" धर्मदत्त ने कहा-"जैसी आपकी आज्ञा । मैं तो आपका अनुचर हूँ।"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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