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________________ धन्य-चरित्र/373 वाला होकर योग्य व अयोग्य रूप में जैसा-तैसा बोल गया हूँ, वह आप मन पर न लगायें। क्योंकि दुःख से अत्यन्त पीड़ित होने पर बुद्धि भ्रष्ट-सी हो जाती है। दुःखी मन में सभी असह्य होता है। अतः दुःख रूपी समुद्र में डूबे हुए मेरी आप ही गति हैं, आप ही शरण है और आप ही सहारा हैं। आप ही कृपा करके मेरा उद्धार कीजिए।" इस प्रकार धर्मदत्त की विज्ञप्ति सुनकर सभी सभासदों व राजा ने उसे पहचान लिया, और परस्पर कहने लगे-"अहो! श्रीपति श्रेष्ठी के पुत्र की ऐसी अवस्था हो गयी। अतः किसी को भी धनादि का गर्व नहीं करना चाहिए।" राजा ने धर्मदत्त से कहा-“हे भद्र! महासिद्धि रूपी स्वर्ण पुरुष किसी सिद्ध के द्वारा, गन्धर्व के द्वारा, विद्याधर के द्वारा अथवा व्यन्तर के द्वारा चुराया गया होगा, वह अल्प पुण्यवाले तुम्हारे हाथ में कैसे आये? पुनः ऐसा कौन भाग्यशाली, देव-बल से युक्त साहसिकों का शिरोमणि पुरुष होगा, जो दूसरे बलवान के हाथ में गये हुए स्वर्ण-पुरुष को लाकर तुम्हारे हाथ में दे देवे। तुम्हारे दुःख को देखने में हम असमर्थ हैं, अतः लाख या करोड़ प्रमाण-जितनी भी इच्छा हो, उतना धन माँग लो, उतना प्रमाण स्वर्ण मैं अपने कोष से तुम्हें प्रदान करूँगा, उसे लेकर सुखी जीवन जीओ।" धर्मदत्त ने कहा-"देव! अगर वही स्वर्ण-पुरुष मिल जाये, तो मुझे शान्ति मिलेगी। दूसरा स्वर्ण नहीं ग्रहण करूँगा। मैं माँगनेवाला भी नहीं हूँ। अतः अन्य माल ले लो, यह भी अब आप मत कहना। अगर अपनी भुजाओं से उपार्जित स्वर्ण-पुरुष आप जैसे पर-दुःख-भंजक की चरण-शरण में आकर भी प्राप्त नहीं किया, तो अन्य स्वर्ण-ग्रहण करने से क्या फायदा? जो होना है, वह होकर रहे-मैं अन्य स्वर्ण ग्रहण नहीं करूँगा। पर-धन लेकर महेभ्य-पुत्र के बिरुद को कैसे लज्जित करूँ? मेरा स्वर्ण पुरुष तो आपके नगर-उपवन के अन्दर ही गायब हुआ है, अन्यत्र नहीं। पहले भी पर दुःख-भंजक का बिरुद निभानेवाले राजाओं ने देवता आदि के द्वारा चुराये हुए वस्त्र, कंचुक, आभूषण आदि को साहस, धैर्य, बुद्धि आदि बल के द्वारा देवादि के पास से भी लाकर दिये हैं। वर्तमान में तो आप भी पर-दुःख भंजक हैं। आप अपनी प्रजा का पुत्र से भी ज्यादा ख्याल रखनेवाले पिता-समान प्राणपालक हैं। अगर मुझे दुःख रूपी समुद्र से उबारने में आप अपने बुद्धि-बल से अथवा किसी भी छल से स्वर्ण-पुरुष को खोज करके प्रकट करके देंगे, तो आपके चरणों में रहकर ही मैं सेवा करूँगा। अन्यथा तो आपका कल्याण हो। मैं तो वापस देशान्तर में चला जाऊँगा।" उसके कथन को सुनकर राजा विचार करने लगाा-"अहो! यह मेरे देश का नागरिक है, दुःख से संतप्त होकर मेरे ही पास आया है। अगर इसके दुःख को दूर नहीं करता हूँ, तो इसका मेरे आगे पूत्कार करना वृथा होगा। अगर इसके दुःख को सुनकर अपना वीर्य नहीं दिखाता हूँ, तो मेरे राजा होने पर प्रश्नचिह्न लग जायेगा। बन्दीजनों द्वारा संचित यश विफल हो जायेगा। दिया हुआ धन यह लेता नहीं है, और गयी हुई वस्तु तो भाग्य के अधीन है। क्या करूँ? मुझ पर तो कठिनाई आ पड़ी। मेरी
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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