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________________ धन्य - चरित्र / 362 परिपूर्ण तालाब को देखकर प्रसन्न होता हुआ विचार करने लगापृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् । मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते । । 1 । । पृथ्वी पर तीन ही रत्न कहे गये है- जल, अन्न और सुभाषित वचन । मूर्ख लोग तो पत्थर के टुकड़ों को रत्न के नाम से पुकारते हैं । " फिर वस्त्र से छानकर मीठा जल पिया । तालाब की पाल पर लगे हुए वृक्षों की छाया में समुद्र को पार करने की थकान से युक्त होकर अनेक प्रकार के विचार करता हुआ निद्रा से निमिलित नेत्रवाला होकर सो गया। तभी उसे किसी ने उठाया । जागृत होते हुए स्वयं यह जानकर आँखें खोलकर देखता है तो सामने विशालकाय भंयकर राक्षस को देखकर भयभीत होता हुआ पुनः आँखे बंदकर विचारने लगता है - अहो ! कर्मों की गति विचित्र व दुर्निवार है । क्योंकि छित्त्वा पाशमपास्य कूटरचनां भङ्क्त्वा बलाद् वागुरां, पर्यन्ताऽग्निशिखाकलापजटिलाद् निःसृत्य दूरं वनात् । व्याधानां शरगोचरादतिजवेनोत्प्लुत्य धावन् मृगः कूपान्तः पतितः करोति विमुखे किं वा विधौ पौरुषम् ।। 1 ।। जाल को छोड़कर, कूट रचना को दूर करके, जबर्दस्ती विपत्ति का भंग 1 करके ऊँची-ऊँची लपटों से घिरे वन से भी निकलकर दूर जाकर भी, शिकारियों के बाणों से भी ज्यादा तेज गति से उछलकर दौड़ता हुआ भी मृग आखिर कुएँ के अन्दर गिर जाता है । अहो ! भाग्य के विमुख होने पर पुरुषार्थ का क्या ? और भी - खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः संतापितो मस्तके, वाञ्छन देशमनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः । तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रापदा भाजनम् ।।2।। मुंडित मस्तकवाला सूर्य की किरणों से मस्तक के पीड़ित होने पर जरा-सी छाया की वांछा करते हुए भाग्यवशात् ताल - वृक्ष के नीचे गया । वहाँ पर भी बहुत बड़े फल के द्वारा गिरते हुए आवाज के साथ उसके मस्तक को भग्न किया । अहो ! भाग्य रहित पुरुष जहाँ भी जाता है, वहाँ विपदा का ही पात्र बनता है । अहो! मैं समुद्र से सकुशल निकला, तो यहाँ राक्षस के द्वारा पकड़ा गया । अतः अब क्या करूँ? जो होना है, हो जाये । अब डरने से क्या ? क्योंकि तावद् भयाद्धि भेतव्यं यावत् भयमनागतम् । आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यम् भीतवत् । । अर्थात् भय से तब तक ही डरना चाहिए, जब तक कि भय सामने नहीं आता । भय को आया हुआ देखकर भींत की तरह प्रहार करना चाहिए ।" इस प्रकार दृढ़मन से विचार करते हुए अपने आपको कहीं किसी स्थान पर
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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