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________________ धन्य-चरित्र/361 यह धर्मदत्त अब किस प्रकार का सीमित व्यवसाय कर रहा है? धन के नष्ट हो जाने से अब करे भी क्या? पहले तो इसके पिता के द्वार पर सत्यंकार देने पर करोड़-करोड़ मूल्य के क्रय-विक्रय हुआ करते थे। अभी तो यह अवसर के अनुकूल ही कार्य कर रहा है। इत्यादि लोगों की बातें सुनकर वह लज्जित होता था कि मैं पिता से अत्यधिक हीन पुण्यवाला अपने ही दोष से हुआ हूँ। इस प्रकार एक बार उदासीन होकर घर पर जाकर पत्नी से कहा-"प्रिये! मैं क्रय-विक्रय के लिए समुद्री यात्रा पर जाना चाहता हूँ, क्योंकि इक्षुक्षेत्रं समुद्रश्च जात्यपाषाण एव च। प्रसादो भूभुजां चैव सद्यो घ्नन्ति दरिद्रताम् ।।1।। इक्षु का खेत, समुद्र, कीमती रत्न व राजा की कृपा- ये शीघ्र ही दरिद्रता का नाश करते हैं। उसने कहा-"प्राणेश! समुद्र-गमन बहुत ही दुष्कर है। पुण्य के अनुसार प्राप्ति तो सभी जगह हो सकती है। जैसे कि समुद्र में समुद्र-प्रमाण, तालाब में तालाब प्रमाण, घड़े में घड़ा प्रमाण ही पानी आती है।" प्रिया के इस कथन को सुनकर धर्मदत्त ने कहा विद्यां वित्तं च सत्त्वं च तावन्नाप्नोति मानवः । यावद् भ्रमति नो भूमौ देशाद् देशान्तरं भृशम् ।।1।। विद्या, धन और सत्त्व को मानव तब तक प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक देश से देशान्तर की भूमि पर बार-बार भ्रमण नहीं करता। अतः समुद्र को तैरकर देशान्तर जाऊँगा, क्योंकि जो भाग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से बंधा हुआ है। वह वैसा ही है, पर वे द्रव्यादि के संयोग में ही फलते हैं, अन्यथा नहीं। अतः अगर यह उस क्षेत्र से प्राप्त होना है, तो यहाँ कैसे प्राप्त होगा?" इस प्रकार प्रिया को प्रत्युत्तर देकर अपने स्वजनों को घर आदि की भलावन देकर, उस देशान्तर के योग्य माल लेकर तैयार जलयान पर चढ़ गया। जहाज कर्कोटक द्वीप के लिए रवाना हुआ। क्रमशः जाते हुए एक बार प्रतिकूल वायु के योग से जहाज टूट गया, पर धर्मदत्त के हाथ में एक फलक आ गया, उसके आधार से समुद्र को लांघकर पत्नी की शिक्षा को याद करते हुए कुछेक दिनों में तट को प्राप्त हुआ। समुद्र को देखता हुआ प्यास से पीड़ित होता हुआ बोला वेलोल्लालितकल्लोल! धिक् ते सागर! गर्जितम्। यस्य तीरे तृषाक्रान्तः पान्थः पृच्छति कूपिकाम् ।।1।। "लहरों से आलोदित भयंकर गर्जना करते हुए हे सागर! तुझे धिक्कार है। जिसके किनारे बैठकर प्यास से पीड़ित पथिक कुएँ के बारे में पूछते हैं।" इस प्रकार कहते हुए वेलावन में चारों ओर घूमते हुए इस प्रकार जल से
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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