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________________ धन्य-चरित्र/310 चरण–न्यास द्वारा हमारे उद्यान को अलंकृत किया है। देवकृत तीन कोट आदि, अशोक वृक्ष, भामण्डल की किरणों आदि शोभा के द्वारा निरुपम अनिर्वचनीय आश्चर्य के द्वारा शोभित हो रहे हैं। जो देखता है, वही जान सकता है । पर उस अनिर्वचनीय स्थिति को बताने में कोई भी समर्थ नहीं है। उन सभी आश्चर्यों के मध्य सिंहासन पर विराजमान भगवान अमृत को प्रवाहित करनेवाली देशना दे रहे हैं, जिसके श्रवण - मात्र से जो सुख अनुभव होता है, वह न तो भूत में हुआ, न भविष्य में होगा ।" उद्यानपालक के इस प्रकार के वचनों को सुनकर सूर्योदय के होने पर चक्रवाक की तरह हर्षित होकर आजीविका पूर्ण करने में समर्थ प्रीतिदान देकर चिन्तित मनोरथ के शीघ्र ही सफल होने से अपने आप को धन्य मानते हुए उल्लसित रोमांचवाले होते हुए सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ वंदन करने गया । जिन-दर्शन में दस अभिगम के सत्यापनपूर्वक जिनेश्वर देव को नमन करके अद्याऽभवत् सफलता नयनद्वयस्य, देव! त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक ! प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणः । । हे देव! आपके चरण-कमलों के दर्शन से मेरे दोनों नेत्र आज सफल हुए। हे तीन जगत के तिलक - स्वरूप ! यह संसार रूपी समुद्र भी अब मुझे चुल्लुक - प्रमाण लगता है। इत्यादि स्तुति करके यथोचित स्थान पर बैठकर, अंजलि करके सम्मुख रहते हुए देशना सुनने लगा। प्रभु ने भी मिथ्यात्व रूपी उग्र नाग के जहर को उतारने में नागदमनी के समान, काम रूपी दावानल को बुझाने में एकमात्र वृष्टि के समान, अनादि भव-भ्रमण को मिटानेवाली तथा जन-जन के आनंद को प्रकाशित करनेवाली धर्मदेशना प्रदान की। राजा आदि के द्वारा तीव्र प्यास से पीड़ित को अमृत - पान की तरह कर्ण - सम्पुटों के द्वारा भर-भरकर पान किया गया। उससे अनादि कषाय की थकान नष्ट हो गयी। अति अद्भुत वैराग्य का रंग प्रकट हुआ। इस प्रकार शम, संवेग, निर्वेद आदि गुणों से उल्लसित राजा आनन्दपूर्वक उठकर हाथों को जोड़कर बोले - "हे प्रभो ! पहले भी मैंने महा-आनन्द रूपी नगर की प्राप्ति के लिए घोड़े की गति के सदृश श्रावक - धर्म आपके द्वारा ग्रहण किया। आज तो आपकी कृपा से भव से निर्वेद हो गया है। अतः पवन वेगवाले चारित्र रूपी प्रवहण पर सवार होकर मुक्तिपुर जाने की इच्छा रखता हूँ । अतः कृपा करके संयम प्रदान करें ।" तब प्रभु ने कहा-"जैसे आत्मा को सुख व हितकारी हो, वैसा करो। " राजा जिनेश्वर को नमन करके घर गया । अपने पुत्र को राज्य देकर,
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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