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________________ धन्य - चरित्र / 279 इच्छित सम्पदा को देनेवाले भेद सहित दानादि धर्म प्रत्येक श्रावक के द्वारा विधिपूर्वक आराधित होते हुए कल्पवृक्ष की तरह फलते हैं। उनमें चारों धर्मों में से दान-धर्म सबसे प्रथम है, क्योंकि जिनधर्म का मूल दया को ही कहा गया है और वह अभयदान रूप ही है। कहा भी है : अभयं सुपत्तदाणं अणुकंपा उचिय- कित्तिदाणं च । दोहिं पि मुक्खो भणिओ तिन्नि वि भोगाइया दिन्ति । । अभयदान, सुपात्रदान, अनुकम्पादान, उचितदान, कीर्तिदान - इस पाँचों में से दो से मोक्ष मिलता है और तीन से भोगादि मिलते हैं। दान गुण के द्वारा इहलोक और परलोक में जगत में वल्लभ होते हैं। दानी व्यक्ति जो-जो इच्छा करते है, वे सभी वस्तुएँ मुख के सामने आकर उपस्थित हो जाती है । दानी व्यक्ति के इच्छा - मात्र करने से अविलम्ब इच्छा की पूर्ति हो जाती है। दाता से ही नगर शोभित होता है । दाता सुपात्रदान के द्वारा विशेष रूप से पुण्य व यश को बाँधता है। कहा भी है पृथिव्याभरणं पुरुषः पुरुषाभरणं प्रधानतरा लक्ष्मीः । लक्ष्म्याभरणं दानं दानाभरणं सुपात्रं च ।।1।। पृथ्वी का आभरण पुरुष है, पुरुष का आभरण प्रधान रूप से लक्ष्मी है, लक्ष्मी का आभरण दान है और दान का आभरण सुपात्र है। दान कभी भी निष्फल नहीं होता है। जैसे “पात्रे पुण्यनिबन्धनं तदितरे प्रोद्यद्दयाख्यापकं, मित्रे प्रीतिवर्धकं रिपुजने वैराऽपहारक्षमम्। भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतौ सन्मानपूजाप्रदं, भट्टादौ च यशस्करं वितरणं न क्वाप्यहो ! निष्फलम् ।” पात्र में दान देना पुण्य का कारण है, उससे इतर में दान देना दया कहा गया है, मित्र को दान देना प्रीतिवर्धक है, शत्रुजनों को दान देने से वैर दूर होता हे, नौकर को दान देने से वह भक्ति युक्त होता है, राजा को देने से सम्मान मिलता है और पूजा को दिलानेवाला होता है। भाट चारण आदि को देने से कल्याणकारी व यश को फैलानेवाला होता है। अतः दान कभी भी निष्फल नहीं जाता । इत्यादि स्पष्ट ही है । चित्त-शुद्धि, वित्त-शुद्धि व पात्र - ‍ -शुद्धि - इस प्रकार त्रिशुद्धि के द्वारा जो दान दिया जाता है, उसका फल कोई भी कहने में समर्थ नहीं है। जैसे
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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