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________________ धन्य-चरित्र/224 योग्य है, अन्यथा नहीं।" इस प्रकार की प्रतिज्ञा ग्रहण करके इसके घर जाकर और आशीर्वाद देकर मेरे द्वारा एक दिन का भोजन माँगा गया। तब इसने कहा-"आज अवसर नहीं है, कल दूंगा।" पुनः अन्य दिन मैं गया, तो इसने फिर कहा कि कल दूंगा। इस प्रकार तीसरे दिन जाने पर भी इससे वही उत्तर मिला कि कल दूंगा। इस प्रकार मेरे द्वारा अनेक वर्षों तक माँगा गया, पर कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। याचक-वृन्द मुझे भ्रष्ट-प्रतिज्ञावाला जानकर मुझ पर हँसने लगे। तब मैंने सोचा कि मैंने व्यर्थ ही यह प्रतिज्ञा की। मेरा महत्व चला गया। भ्रष्ट-प्रतिज्ञावाले का जीवन विफल है। यह विचार करके इसी कंजूस की अभोग्या सम्पत्ति को भोग के उपयोग में लाने के लिए मेरे द्वारा देव की आराधना की गयी। अनेक उपवास और अनेक क्लेशों के द्वारा देवी की कृपा प्राप्त हुई। तब श्रेष्ठी के ग्रामान्तर-गमन को जानकर श्रेष्ठी का रूप धारण करके इसके घर में प्रवेश कर गया। वहाँ रहते हुए मैंने इसकी लक्ष्मी को सफल किया। वहाँ भी इसी का नाम और यश वर्धित हुआ। दीन-हीन प्राणियों का उद्धार किया, वह भी इसी को पुण्य हुआ। 'जिसका अन्न, उसी का पुण्य' यह लोकोक्ति है। मैंने तो भोजन-मात्र किया है। इसके अन्तःपुर में मैंने कुछ भी अनुचित नहीं किया है, जिससे कि मैं राजा और धर्म के अपराध का पात्र बनूं। मैंने तो केवल इसके नाम की कीर्ति बढ़ायी है। इसमें मेरा क्या दोष है, जिससे कि राजा ने मेरे वध का आदेश दिया है?" इस प्रकार के भाट के वृत्तान्त को सुनकर राजा सहित सभी सभ्यों ने विस्मय–सहित हँसते हुए कहा-“हे भट्ट! तुमने बहुत सही कहा। कृपणता के रोग से पीड़ित इसका तुम्हारे बिना दूसरा कौन वैद्य हो सकता है? ऐसे लोगों की ऐसी ही शिक्षा होनी चाहिए। पर इस भट्ट का कोई दोष नहीं है।' राजा ने भी क्रोध का त्याग करते हुए प्रसन्न होकर बंदी को बधन-मुक्त किया। यथोचित प्रीतिदान देकर उसे विदा किया। याचक ने भी धनकर्मा के धन-सुख को प्राप्त करके उससे कहा-“हे श्रेष्ठी! पुनः इस प्रकार के भट्ट-भिक्षुओं के साथ विरोध नहीं करना चाहिए। कोमल हृदय का दया-दानादि द्वारा रक्षण करना चाहिए। कृपणता तो इसलोक और परलोक-दोनों में ही दुःख का एकमात्र कारण है। शास्त्रों में भी कहा है __ भोक्तव्यं च प्रदेयं च कर्तव्यो नैव संग्रहः । कीटिकासंचितं धान्यं तित्तिरिः पश्य भक्षयेत्।। अर्थात् भोगना चाहिए, दान देना चाहिए, पर संग्रह नहीं करना चाहिए। कीड़ियों के द्वारा संचित धान्य को देखो, जिसे तित्तिरि भक्षण कर लेती है।"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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