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________________ धन्य-चरित्र/223 दोनों के बीच जो सत्य धर्म के प्रभाव से इसके मुख से अन्दर प्रवेश करके नालिका से बाहर निकलेगा, वही सत्य धनकर्मा है, दूसरा नहीं।" यह सुनकर कूट धनकर्मा तो हर्षित हो गया – “अच्छा हुआ। देवी के बल से मैं कुम्भ के अन्दर प्रवेश करके नालिका से बाहर आ करके सत्य साबित होता है। उसके बाद घर सहित धन मेरा ही होगा।" पर सत्य धनकर्मा तो विचार में पड़ गया और सोचने लगा कि "अत्यधिक छोटे से इस कुम्भ में प्रवेश और निर्गमन हम दोनों के लिए ही असम्भव है। इस न्याय से क्या होगा?" इस प्रकार आर्त्तध्यान में पड़ गया। पुनः धन्य ने कहा-'हे देवी-देवताओं ! अगर मै सत्य हूँ, तो इस कुम्भ के मध्य में प्रवेश करके निकलने की शक्ति देना-इस प्रकार कहकर दिव्य करें।" जो सत्य होगा, वह बाहर निकल जायेगा।" इस प्रकार धन्य के कह चुकने पर कूट धनकर्मा देवी के बल से कुम्भ के अन्दर प्रवेश करके बाहर निकल गया। निकलकर जब राजा के पाँव स्पर्श करने लगा, तभी धन्य ने उसकी चोटी पकड़कर उसे रोक लिया, क्योंकि व्यन्तरअधिष्ठित-शरीरी शिखा ग्रहण करने पर जाने में शक्य नहीं होता है। फिर धन्य ने कहा-"स्वामी! यह आपका चोर है। दूसरा सच्चा है। यह किसी भी प्रकार से देव-देवी के बल से निकल गया है, पर यह झूठा है। यह विडम्बना इसी के द्वारा की गयी है। अन्य के घर की सारभूत वस्तुओं को इसी ने व्यय किया है और छिपाया है।" इस प्रकार के धन्य के वचनों को सुनकर राजा ने चोर को जानकर अपने सेवकों को वध की आज्ञा दी। शीघ्र ही सेवकों के द्वारा पकड़ा हुआ वह विचार करने लगा-"अब मेरा कपट नहीं चलेगा। स्वरूप प्रकट करने से ही मैं बच पाऊँगा। अन्यथा नहीं।" तब निष्फल मायावाला यह मंद होता हुआ बंदी श्रेष्ठी के रूप को त्याग अपने मूल रूप में आते हुए सभा के अन्दर ही स्थित रहता हुआ बोला-"सभी लोग मेरे कथन को सुनें। अनेक वर्षों पूर्व हम बंदीजनों (चारणों) के मिलन के अवसर पर अपने-अपने कौशल का प्रकाशन करने के अवसर पर किसी ने कहा-“इन सभी के द्वारा अपनी-अपनी कला बतायी गयी है, पर मैं इनको तभी सत्य जानूँगा, जब अमित धनवाले धनकर्मा के घर में जाकर और याचना करके एक दिन के निर्वाह जितना भी भोजन अगर कोई ले आये।" इस कथन को सुनकर मैंने प्रतिज्ञा की कि जब इसके पास से एक दिन के निर्वाह का भोजन ग्रहण करूँगा, तभी समुदाय में मेरे द्वारा विभाग ग्रहण करने
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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